पिछले कुछ समय से ऐसे कई मामले सामने आये हैं जिनसे प्रतीत होता है कि देश की सर्वोच्च स्वायत्त संस्थानो मे सरकार का हस्तक्षेप बढ़ा है। वैसे तो इन सारी संस्थानों मे सरकारी दखलअंदाजी कोई नई बात नहीं है लेकिन पिछली कुछ घटनाऐं इस बात की गवाह हैं कि इन संस्थाओं को सीधे नियंत्रण मे करने और और उनकी स्वाभाविक प्रक्रिया मे बाधा डालने की कोशिश हुई है।
यहां सवाल उठता है कि जब स्वायत्त संस्थाओं के काम काज को सरकार द्वारा निरंतर और अनावश्यक रुप से प्रभावित किया जायेगा तो उनकी स्वायत्तता और पारदर्शिता का औचित्य क्या रह जायेगा ? ऐसी संस्थाए जो केंद्र सरकार के इशारे पर नही चल सके उनको सरकार से झगड़ा मोल लेना पड़ा।
पिछले वर्षों मे संस्थानों की स्वायत्तता पर उठते सवाल –
संस्थानो को अपने हिसाब से चलने और उन्हे अपने अनुरुप ढ़लने के लिये बाध्य करने का सिलसिला नई सरकार के आते ही शुरु हो गया था।
1) सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था और केंद्र सरकार में जजों की नियुक्तियों को लेकर विवाद जगजाहिर है। आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने आकर प्रेस कांफ्रेस की। जजो के द्वारा मीडिया मे ये बताना कि देश का लोकतंत्र खतरे मे है और जजो को काम करने से रोका जा रहा है। ये एक ऐसा आरोप था जो भारतीय लोकतंत्र पर सरकारी तानाशाही का सबूत दे रहा था।
2) चुनाव आयोग
भारतीय निर्वाचन आयोग एक पूर्ण स्वायत्त संस्थान है जिसका गठन भारत में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से विभिन्न से भारत के प्रतिनिधिक संस्थानों में प्रतिनिधि चुनने के लिए गया था। लेकिन उसकी दशा हमारे सामने है कि हाल ही मे समाप्त हुए लोकसभा चुनावों मे ये बात भी जाहिर हो गई कि चुनाव आयोग ने भी सरकारी तंत्र के समर्पण कर दिया है। साध्वी प्रज्ञा जैसे अपराधियो का खुले आम चुनाव में खड़ा होना आयोग पर सीधा हज़ारो सवाल खड़े करता है।
ईवीएम सम्बंधी शिकायतों पर आयोग चुप्पी से प्रदर्शित होता है कि आयोग सिर्फ एक भौतिक ढांचा बन कर रह गया है जिसमे पारदर्शिता जैसी चीज सिरे से समाप्त हो चुकी है।इस दौरान चुनाव आयोग मे चल रही आपस की लड़ाई ने रहे सहे सम्मान को भी समाप्त कर दिया।
3) रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया
केंद्रीय बैंक आरबीआई भी सरकारी षडयंत्र से अछूता नहीं रहा है। समाचार चैनलो के माध्यम से ऐसी खबरे आई जो हर जागरुक नागरिक को परेशान कर देने वाला था। सरकार आरबीआई से वो करवाना चाहती थी जो आज तक इतिहास मे नहीं हुआ। सरकार चाहती थी कि आरबीआई के रिजर्व का इस्तेमाल वो करे जबकि आरबीआई का तर्क था कि इसका उपयोग सरकार नहीं कर सकती। बाद मे इस टकराव मे आखिरकार आरबीआई को ही पीछे हटना पड़ा।
इससे पहले भी केंद्र सरकार की नीतियों से इत्तफाक नहीं रखने के कारण ही आरबीआई के गर्वनर रघुराम राजन को जाना पड़ा था। राजन ने इसका खुलासा भी किया था कि किस तरह केंद्र सरकार दबाव डाल कर हित साधना चाहती है।
4) सीबीआई
एनडीए सरकार मे सीबीआई मे भी वही हुआ जो अन्य स्वायत्त संस्थानों मे हुआ। सीबीआई की साफ छवि उस समय धुमिल हो गई जब इस संस्थान के दो शीर्ष अधिकारियों के बीच लड़ाई हो गई। इस दौरान ये देखने को मिला कि सरकार द्वारा एक अधिकारी का पक्ष लिया जा रहा है। सरकार द्वारा इस सहानुभूति का परिणाम निकला कि सरकार एक विशेष तरीके से शासन चलाना चाहती है। जिसमे लोकतांत्रिक मूल्यो और असहमति की आवाज़ो का कोई स्थान नही है।
संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता कितनी जरुरी ?
जिस तरह केंद्र सरकार का देश की स्वायत्त और संवैधानिक संस्थाओं से लड़ाई बढ़ रही है, उससे देश में लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र को जांचने के लिये ये देखा जाता है कि वहां कि संस्थाये कितनी मजबूत और स्वतंत्र है।भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। यदि यहां पर स्वायत्त संस्थानों पर इस तरह सरकार का दबाव रहेगा तो ये लोकतंत्र के लिये अच्छी बात नहीं है।
यदि समस्त संस्थानों से जनता का विश्वास उठ जायेगा तो एक अराजक स्थिति पैदा होगी जो किसी के भी हित मे नही है। स्वायत्त संस्थानों को भी चाहिये कि वो बिना किसी भय और डर के अपना काम करे और जनता के सामने जवाबदेह हो ताकि उनकी पारदर्शिता कायम रहे।
– खान शाहीन