क्या हम वाकई आज़ाद हैं ? देशवासियों से एक रिसर्च स्कॉलर ने पूछे सुलगते सवाल !

बीते दिनों आज़ादी की सालगिरह पर जब मैंने अपने देश की ग़ुलाम आवाम को आज़ाद होने की दुआओं के साथ आज़ादी की मुबारकबाद पेश की,तो मेरे कई साथियों को ये बात नाग़वार गुज़री, लेकिन मेरा अब भी यही मानना है कि हममें से ज़्यादातर लोग आज भी एक आज़ाद देश के ग़ुलाम नागरिक ही हैं और इस निष्कर्ष के मेरे पास कई ठोस कारण हैं जिनको मैं यहाँ रेखांकित करना चाहता हूँ जिससे बाक़ी लोगों को भी अपनी ग़ुलामी का एहसास हो और वे इससे निजात पाने की ओर अग्रसर हों और अपनी आने वाली पीढ़ियों को आज़ादी की विरासत सौंपें न कि ग़ुलामी की!!

अब आप लोग मुझे बताइए कि एक ऐसा देश जिसकी सरज़मीं से अंग्रेज़ों ने रूखसती करते करते उसके दिल पर मुस्लिम लीग, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं हिन्दू महासभा जैसे संगठनों के कट्टर साम्प्रदायिक विचारों का इस्तेमाल करते हुए अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के तहत विभाजन का ऐसा गहरा ज़ख़्म दिया हो जिसमें से १९४७ से ले कर आज तक बदस्तूर पीप बह रहा हो, एक ऐसा देश जो जिन्ना और सावरकर जैसे लोगों द्वारा स्थापित साम्प्रदायिक उन्माद के वातावरण में अपने लाखों देशवासियों के क़त्ल-ओ-गारत का गवाह रहा हो,

जिस सरज़मीं पर सत्ता के दलालों द्वारा उकेरी गई लकीरों की वजह से हमारे पुरखों को सम्पूर्ण विश्व इतिहास का सबसे अधिक पलायन झेलना पड़ा हो, जहाँ असंख्य लोगों को अपना बसा बसाया घर-बार, ज़मीन जायदाद, गली मोहल्ला, पड़ोसियों को छोड़ कर एक जगह से दूसरी जगह जाने पर मजबूर होना पड़ा हो मात्र अपनी मज़हबी पहचान के चलते, ऐसे में उसी सरज़मीं के लोग अगर आज भी साम्प्रदायिकता के रथ पर सवार हो कर आए नेता या सत्ता पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने पर उतारू हों तो उस वहशी भीड़ को आप चाहें तो आज़ाद क़रार दे सकते हैं लेकिन मेरी नज़र में ये सारे लोग आज भी ज़हनी तौर पर ग़ुलाम ही हैं, जिन्होंने अपने अतीत से आज तक कोई भी सबक़ नहीं सीखा, यहाँ देश और आवाम से मेरा ताल्लुक़ भारत और पाकिस्तान दोनों देशों और उनकी आवाम से है।

कितना अजीब विरोधाभास है कि एक ऐसा देश जिसने “वसुधैव कुटुम्बकम” के सिद्धान्त के ज़रिए दुनिया भर को मानवता का पाठ पढ़ाया हो, आज उसी देश के एक भूभाग असम में सालों से रह रहे लाखों लोगों को देश की चुनी हुई सरकार द्वारा एक झटके में अपने देश का नागरिक मानने से इनकार कर दिया जाता है, लेकिन बाक़ी देशवासियों को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता.. माना कि ये प्रक्रिया भारत की सुप्रीम कोर्ट के कहने पर और उसकी निगरानी में ही सम्पन्न हुई है, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हम इंसानी नज़रिए से चीज़ों को देखना बन्द कर दें और बतौर नागरिक समाज हम ऐसे मानवता विरोधी फ़ैसलों पर भी अपनी ज़ुबानों पर ताला डाल कर सोते रहें।

जहाँ तक रही बात कश्मीर की तो कश्मीर का मसला इतना जटिल है कि कोई भी बात कहने से पहले हज़ार दफ़ा सोचना पड़ता है। मेरा ऐसा मानना है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में एक चुनी हुई सरकार को पूरा हक़ है आईन की रौशनी में अपने फ़ैसले लेने का और ऐसा कोई भी फ़ैसला संवैधानिक है या नहीं ये तय करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है, लेकिन केन्द्र के प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्त जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल को ही कश्मीरी आवाम का भी प्रतिनिधि मानते हुए उनकी सहमति को आधार बना कर लिया गया फ़ैसला मेरी नज़र में अन्यायपूर्ण ही प्रतीत होता है, ऐसी मेरी राय है और किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकारों द्वारा लिए गए फ़ैसलों पर मुझे अपनी राय अपने ज़मीर और सूझबूझ के आधार पर तय करने और व्यक्त करने का पूरा अधिकार है,

कोई नेता या सत्ता ये तय नहीं कर सकती कि अमुक मसले पर मेरी क्या राय होगी और न ही मुझे अपनी राय व्यक्त करने के अधिकार से वंचित कर सकती है। फ़िलवक़्त तक तो मुझे ये अधिकार हासिल है लेकिन अति राष्ट्रवादी सरकार की कारगुज़ारियों को देखते हुए ये कहना मुश्किल होगा कि मुझे कब तक अपने इस नागरिक अधिकार को बरक़रार रखने का सर्फ़ हासिल रहेगा।

विडम्बना यह है कि जहाँ एक ओर हमारे जैसे तमाम लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का ये मूल अधिकार बासहूलियत हासिल है वहीं दूसरी ओर हमारे देश के एक बेहद ख़ूबसूरत भूभाग जम्मू और कश्मीर जो कि हमारे देश का अभिन्न अंग है, वहाँ रह रहे हमारे देशवासियों को एक ऐसे फ़ैसले पर अपनी राय ज़ाहिर करने का भी अधिकार नहीं है, जो फ़ैसला उन्हें ही सबसे अधिक  प्रभावित कर रहा है, और जैसा कि सरकार का दावा है कि सरकार का ये क़दम जम्मू-कश्मीर की आवाम की भलाई के लिए है, तो फिर इतना सख़्त पहरा लगा कर वहाँ की स्थानीय आवाज़ों को ख़ामोश कर देने का मतलब समझ नहीं आता।

इस पूरे प्रकरण में अफ़सोस इस बात का है कि हमारे नागरिक समाज का प्रगतिशील तबक़ा भी अन्धराष्ट्रवादी कोलहलों से इतना ख़ौफ़ज़दा हो चुका है कि जिस स्तर का एहतज़ाज इन सब मसलों पर हमारे नागरिक समाज की ओर से होना चाहिए था उसमें मुझे बहुत कमी दिखाई दी।

हालाँकि लोगों का डर कहीं से भी नाजायज़ नहीं ठहराया जा सकता क्यूँकि इसी दौर में हमारे आपके बीच से ही कुछ ऐसे लोगों को तैयार कर दिया गया जिन्होंने सामूहिक तौर पर भीड़ के रूप में आम नागरिकों से ले कर पुलिस वालों पर भी अपना क़हर जम कर बरपाया और कई देशवासियों को इसी हत्यारी भीड़ द्वारा साम्प्रदायिकता और अन्ध राष्ट्रवाद के नशे में मौत के घाट उतार दिया गया, और तो और इन्हीं हत्या के आरोपियों को जब ज़मानत पर रिहा किया गया तो हमारे नागरिक समाज के कुछ लोगों से ले कर मौजूदा सरकार के विधायक,नेताओं और यहाँ तक कि मन्त्रियों द्वारा भी फ़ूल मालाएँ पहना कर जय श्री राम और भारत माता की जयकारों के बीच समाज के नायक के तौर पर सम्मानित किया गया, ये वही दौर है जिसमें आतंकवाद जैसे जघन्य अपराधों की आरोपी महिला को हमारे सभ्य समाज द्वारा चुन कर संसद पहुँचाया गया और इन्हीं सांसद महोदया द्वारा महात्मा गांधी के हत्यारे को राष्ट्र भक्त के दर्जे से सुशोभित किया गया।

लेकिन यहाँ क़ाबिलेग़ौर बात यह है कि जहाँ एक ओर नागरिक समाज में व्याप्त डर का एक पहलू है, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत स्तर पर हमारे पास कन्नन गोपीनाथ जैसे दिलेर और जाँबाज़ नागरिक का एक बेमिसाल उदाहरण है, जिन्होंने सिविल सेवा सरीखी उच्चतम दर्जे की नौकरी, जिसको पाने की चाहत में सालों साल रात दिन एक करके लोग तैयारी में अपने आप को झोंक देते हैं, तब कहीं जा कर चंद लोग इसको हासिल कर पाते हैं, से इस्तीफ़ा इसी बात पर दे दिया कि कश्मीरियों को उनसे सम्बन्धित फ़ैसले के बारे में प्रतिक्रिया ज़ाहिर करने के मूल अधिकार से क्यूँ वंचित रखा गया है, वाक़ई में मेरी नज़र में कन्नन गोपीनाथ जैसे लोग किसी भी नागरिक समाज के लिए एक बेजोड़ उदाहरण हैं और सारे भयभीत लोगों के लिए एक प्रेरणा के स्त्रोत भी, जो हमें याद दिलाते रहते हैं कि अन्धेरा कितना भी घना क्यूँ न हो लेकिन वो सुबह ज़रूर आएगी और हमीं से आएगी।

हालाँकि मेरा मानना है कि इन व्यक्तिगत प्रयासों से अतिरिक्त सामूहिक तौर पर लोगों को अपनी आने वाली नस्लों को एक बेहतर व्यवस्था सौंपने हेतु अभी बहुत मेहनत करनी होगी।

जब बात चली है सामूहिक तौर पर लोगों की वैचारिक गोलबंदी की तो हमें यह जान लेना चाहिए कि इस काम के लिए सबसे ज़रूरी बात है रौशन ख़्याल, इन्साफ़ पसन्द, साफ़- सुथरी छवि वाले नेतृत्व की मौजूदगी, जिसका कि मौजूदा दौर में गहरा आभाव है, यहाँ ये याद रहे कि साफ़- सुथरी छवि से मेरा अभिप्राय मीडिया द्वारा गढ़ी गई

अवतारी या चमत्कारिक छवि से नहीं, बल्कि वास्तविक तौर पर ऐसे लोगों को आगे आना  चाहिए जो हर पल अपने समाज की बेहतरी के लिए फ़िक्रमंद हों और जिनके अन्दर अपने समाज की बेहतरी का ख़्वाब पल रहा हो। और ऐसा क़तई नहीं है कि ऐसे लोगों की हमारे आपके बीच कमी है, बल्कि बहुत सारे ऐसे गुमनाम हीरो हैं समाज के जो अपने अपने तरीक़े से रात-दिन इस मआशरे को सँजोए रखने एवं इसको मज़बूत बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हैं, हाँ ये बात ज़रूर अफ़सोसनाक है कि अधिकतर ऐसे व्यक्तित्व मुख्य धारा की मीडिया द्वारा किनारे लगा दिए गए हैं।

दरअसल मौजूदा सत्ता पक्ष की सफलता का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि इसने भारत के लोगों को मोदी समर्थक और मोदी विरोधी धड़े में बाँट कर रख दिया है, यहाँ एक बात साफ़ कर दूँ कि किसी व्यक्ति विशेष, संगठन या राजनीतिक दल से ईर्ष्या के चलते मैं मौजूदा सत्ता की सफलता के सूत्र तलाशने पर विवश नहीं हुआ हूँ बल्कि ऐसा इसलिए क्योंकि मेरी नज़र में सत्ता का मौजूदा स्वरूप और इसकी बेहिसाब ताक़त हमारे समाज की साझा विरासत और विविधता पूर्ण सामाजिक ताने बाने के अस्तित्व को चुनौती पेश कर रहे हैं।

यहाँ विडम्बना यह है कि लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ जिसकी संवैधानिक ज़िम्मेवारी थी सत्ता की इस बेहिसाब ताक़त पर लगाम लगाने की वह ख़ुद अपनी लगाम सत्ता के हाँथों में सौंप कर मालिक के इशारे पर जनता को ही रौंद रहा है। इसलिए मेरे नज़रिए से भारत के नागरिक समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती मौजूदा परिवेश में इसी मुख्य धारा की मीडिया और राजनीतिक दलों के आई टी सेल से निपटने की है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए हम सोशल मीडिया को अपने औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन मोदी समर्थक और मोदी विरोधी धड़े में वर्गीकृत होने के बाद यह काम भी इतना आसान नहीं बचा। अपने व्यक्तिगत अनुभव से बता रहा हूँ कि अपने बेहद ख़ास दोस्तों को भी कई दफ़ा मैं अपनी बात समझाने में नाकाम रहा हूँ इसी वर्गीकरण के चलते।

इस वर्गीकरण का सबसे बड़ा फ़ायदा सरकार को यह मिलता है कि दोनों गुट एक दूसरे पर इल्ज़ाम-तराशी में ही हरदम मुब्तिला रहते हैं और किसी भी मसले पर सरकार को सफ़ाई पेश करने की भी नौबत नहीं आती, वहीं समाज के तौर पर इस वर्गीकरण का सबसे अधिक नुक़सान यह होता है कि समाज की बेहतरी का कोई भी ख़्याल अगर आपके दिल में है तो उसको सही अर्थों में अपने क़रीबियों तक भी पहुँचा पाना आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है।

हालाँकि मुझे इस बात को स्वीकारने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मैं भी गाहे बगाहे इल्ज़ाम तराशी के इस खेल में शामिल रहा हूँ लेकिन अपनी पुरानी ग़लतियों से सबक़ लेते हुए और काफ़ी सोच विचार के बाद मेरी छोटी सी समझ यही बयान करती है कि भारत के लोगों की भलाई इसी में है कि वे जल्द से जल्द भारतीय समाज के विविधतापूर्ण स्वरूप को आत्मसात कर लें और इस बात को अपने ज़ेहन में अच्छी तरह बिठा लें कि इस मुल्क पर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध, नास्तिक, आस्तिक सभी लोगों का अधिकार है और ऐसे में सभी लोगों को साथ रहना सीखना ही होगा, और इसमें विभिन्न मज़हबों, संस्कृतियों को मानने वाले सभी लोगों को अपना सहयोग करना होगा।

मज़हब ख़ालिस व्यक्तिगत मामला है,इसलिए उसे व्यक्तिगत स्तर तक ही रखना चाहिए और विभिन्न मज़हबों को मानने वाले लोगों को अपने अपने समुदायों की उन कट्टर ताक़तों के पीछे भेड़ चाल करने से परहेज़ करना चाहिए जो आए दिन अपने बयानों और क्रियाकलापों से लोगों में वैमनस्य स्थापित करने और लोगों के बीच दीवारें खड़ी करने के काम को मज़हब की आड़ में बख़ूबी अंजाम देते रहते हैं।

मेरा ऐसा सुझाव है कि आप जी भर के हिन्दू महासभा, क्षत्रिय महासभा, यादव महासभा, मुस्लिम महासभा वग़ैरह बनाते रहिए लेकिन साथ ही साथ जमात-ए-इंसानियत या मानव सभाओं की भी स्थापना ज़रूर करिए। क्योंकि मेरा मानना है कि नफ़रतों का मुक़ाबला नफ़रतों से करने का अंजाम केवल और केवल तबाही है। नफ़रतों का मुक़ाबला मोहब्बत से ही किया जा सकता है, मोहब्बत से बड़ी ताक़त और कोई भी नहीं है इस जहाँ में, मोहब्बत से आप किसी को भी अपना बना सकते हैं।

 

ये गांधी की मोहब्बत, भाईचारे और अहिंसा की ही ताक़त है कि वर्तमान में भारत की सत्ता पर क़ाबिज़ दक्षिणपन्थी ताक़तें न चाहते हुए भी सार्वजनिक मंचों से गांधी का जयकारा लगाने को मजबूर हैं और वही गांधी जिन्हें कभी तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री चर्चिल ने अधनंगा फ़क़ीर कहा था, आज भी वैश्विक स्तर पर प्रासंगिक बने हुए हैं।

इन्हीं सारी बातों को मद्देनज़र रखते हुए मैं जयपुर के साथियों को दावत देता हूँ कि सच्चे मन से समाज की बेहतरी के लिए अपने अपने आरामगाहों से बाहर निकलिए, मिलने का कोई वक़्त और जगह निश्चित कीजिए जहाँ मिल बैठ कर हम और आप एक जमात-ए-इंसानियत जैसे किसी संगठन को वजूद में लाएँ और अपने समाज की भलाई के लिए कुछ काम करें।

साथ ही साथ जितने लोगों तक मेरी बात पहुँच रही है उनसे मेरी गुज़ारिश है कि आप लोग भी अपने अपने शहरों, गाँवों, क़स्बों में इस प्रकार की भाईचारा कमेटियों, मानव सभाओं का निर्माण कर समाज को बिखरने से बचाएँ और नागरिक समाज को मज़बूत करने का काम करें ताकि हमारी आने वाली नस्लें मोहब्बत भरी आबो हवा में साँस ले सकें।

– मोहित यादव ( लेखक MNIT में रीसर्च स्कॉलर है।)

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