सुभाष चन्द्र बोस के साथी कर्नल निज़ामुद्दीन के साथ इस देश ने बहुत नाइंसाफी की है!

माजिद मजाज़

कर्नल निज़ामुद्दीन, एक ऐसा शख़्स जिसने इस मादर ए वतन के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया था। एक ऐसी शख़्सियत जिन्होंने अपना सिंगापुर में काम धंधा छोड़कर सुभाष चंद्र बोस के एक बुलावे पे एनआईए ज़ोईन कर लिए और आज़ाद हिन्द फौज का हिस्सा बने। क्योंकि निज़ामुद्दीन अपने वतन को आज़ाद देखना चाहते थे और इसके लिए ये कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे।

निज़ामुद्दीन साहब की शख़्सियत का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि जिस वक़्त नेता जी, हिटलर से मिलने गए थे उस वक़्त कर्नल निज़ामुद्दीन साहब भी नेता जी के साथ थे। एक जगह सुभाष चंद्र बोस को बचाने के लिए कर्नल साहब ने अपने ऊपर गोलियाँ तक खाई थी।

ये वही निज़ामुद्दीन साहब हैं जो आख़िरी बार सुभाष चंद्र बोस से मिले थे, इतना क़रीबी थे सुभाष चंद्र बोस के। इन्होंने ही इनके हेलीकाप्टर दुर्घटना में नेता जी के मृत्यु के दावे को ख़ारिज किया था और बताया था कि इस दुर्घटना के महीनों बाद नेता जी को बर्मा-थाईलैंड बॉर्डर पे ड्रॉप किया था। नेताजी इनपर सबसे अधिक यक़ीन करते थे, इसीलिए आख़िरी बार इनसे ही मुलाक़ात किए। फिर उसके बाद नेता जी लापता हो गए। कर्नल साहब को पूरा यक़ीन था फ़ैज़ाबाद के गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस हैं, इनके ही दावे को जाँच कमेटी ने सच माना था।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस राष्ट्र ने निज़ामुद्दीन साहब के साथ क्या सुलूक किया? सियासत ने इनके साथ कितनी नाइंसाफ़ी की? बेहद शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि लगभग 69 सालों तक कर्नल साहब स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा पाने के किए लड़ते रहे पर राजनीति ने इनके साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ धोखा दिया। मादर ए हिन्द का ये बेटा बेहद तंगहाली और ग़रीबी में अपनी पूरी ज़िंदगी बसर किया, और उसी दौरान सियासी लुटेरे पूरे मुल्क को लगातार दीमक की तरह खाते रहे।

जो कांग्रेस ख़ुद को स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का ठेकेदार मानती आई है, जिसने दशकों राज करने के बाद भी कर्नल साहब की सुध नहीं ली, कई सरकारें आई और गई पर कर्नल साहब अपने टूटे हुए खाट पर उम्मीद की चादर ओढ़े लेटे रहे, पर अफ़सोस इनके हाथ सिर्फ़ और सिर्फ़ मायूसी लगी।

यही नहीं समाजवाद से लेकर अम्बेडकरवाद तक का सहारा लेकर कई दल सत्ता में आए पर इन्होंने भी कर्नल साहब को सिर्फ़ मायूस ही किया।

मोदी में लाख बुराई है, मैं कभी भाजपा की सियासत को स्वीकार नहीं सकता, लेकिन इस बात पर मोदी की तारीफ़ करता हूँ कि 2014 के चुनाव में मोदी ने कर्नल साहब से मिलकर उनका पैर छुआ, उनका पहली बार किसी ने सम्मान दिया। अचानक इनका नाम मुख्यधारा की मीडिया में आया। फिर दो साल बाद मृत्यु से कुछ महीने पहले कर्नल साहब को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का सर्टिफ़िकेट मिला।

आप इसे राजनीति कह सकते हैं, लेकिन अगर ये राजनीति है तो इससे पहले की सरकारों ने ये राजनीति क्यों नहीं किया? जो शख़्स स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाणपत्र पाने के लिए दशकों दिन रात कलेक्ट्रेट के चक्कर लगाता रहा, उस वक़्त कहाँ थी समकालीन सियासत? कहाँ खड़ा था ये चमकता राष्ट्र जिसके लिए कर्नल साहब ने अपना लहू देकर इस मिट्टी को चमन बनाया था?

आज़मगढ़ के इस वीर सपूत कर्नल निज़ामुद्दीन साहब की ज़िंदगी देशभक्ति की एक सबसे बड़ी मिसाल है, एवं साथ ही साथ इनका संघर्ष एवं इनके साथ हुई ज़्यादती पूरी धर्मनिरपेक्ष सियासत को कटघरे में खड़ी करती है।

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