बीकानेर लोकसभा की रोचक कहानी कैसे लगातार पांच चुनाव महाराजा करणीसिंह ने निर्दलीय जीते

–त्रिभुवन

आइए, जानें बीकानेर लोकसभा सीट की कहानी

बीकानेर देश का वह क्षेत्र, जिसका सांस्कृतिक वैभव कोलकाता से स्पर्धा करता है। इस इलाक़े के उस चैतन्य को प्रणाम ही किया जा सकता है, जो अनूठे सौंदर्य वाली पाँखों को फैलाए नाचते मोर में ही नहीं, फन फैलाए साँप में भी सौंदर्य देखता है।

बीकानेर, जो  करणी माता से लेकर जांभोजी और जसनाथ जैसे महान् संतों की कर्म और धर्म भूमि रहा।

इलाक़े के लोगों की सरलता की स्थिति यह है कि वे अत्याचारों की यादों को भी गौरव की तरह पहनते हैं। यहाँ लोगों ने अपने कंधों पर बिठाकर राजनेताओं को जितना ऊंचा बिठाया, उन्होंने ताक़तवर होने के बाद अपनी सत्ता के गोखों को उतना ही तंग करके रखा।

बीकानेर अपने भीतर नमक का एक ख़ास स्वाद रचने वाला इलाक़ा भर नहीं है, इसके भीतर इसके ख़ास रसगुल्लों की मिठास भी अतुलनीय है।

अल्लाह जिलाई बाई और गवरी देवी जैसी मांड गायिकाओं, हरीश भादानी, नंदकिशोर आचार्य जैसे कवियों और ग़ुलाम मुहम्मद जैसे संगीतज्ञों को जन्म देने वाले इस क्षेत्र की राजनीति भी बेहद दिलचस्प रही है।

यह एलपी तेस्सीतोरी, अगरचंद नाहटा, छगन मोहता, नरोत्तम स्वामी, भरत व्यास, अन्नाराम सुदामा, अहमद बख़्श सिंधी, मेघराज मुकुल, कंवरसेन, विजयशंकर व्यास,  अब्दुल रहमान राणा, शीरीं शर्निले रामलिंगम् आदि का जुड़ाव भी यहीं से रहा है।

बीकाणे का निर्जल-निर्जन थार खेंखारते बगूलों–बवंडरों के बीच भी जाने कब से कला-साहित्य-संगीत और संस्कृति को अपनी बाँहों में भींचकर रखे है और इनसे अपनी आत्मा को निरंतर सींचे है।

वे तथ्य, जो आपको इलाक़े की राजनीति की पृष्ठभूमि समझने में मदद करेंगे

खेजड़े, रोहिड़ा, जाल-पीलू, कुम्मट, फोग जैसे पेड़, खींप, लांपला, भरूंट, धामण, डाब, घमोड़, सींवण, कांस जैसी घास वाले बीकानेर की स्थापना की कहानी किसी चुनावी नतीजों जैसी ही रोचक है।

एक ताने से ऐसे बसा बीकानेर
जोधपुर शासक राव जोधा के छह रानियों से 17 बच्चे थे। उनका बेटा बीका एक दिन दरबार में देर से आया तो संकोचवश थोड़ा हटकर चाचा राव कांधल के बगल में बैठ गया। दोनों कानाफूसी करने लगे। राव जोधा को यह बुरा लगा तो उन्होंने तंज किया, क्या कानाफूसी हो रही है? चाचा-भतीजा से जवाब देते नहीं बना तो जोधा बोले, कोई नया साम्राज्य स्थापित करने का विचार है क्या? इस पर बीका बोले : हाँ। आपका आशीर्वाद मिले तो।

चाचा-भतीजा उसी समय एक नए साम्राज्य स्थापना के लिए 30 सितंबर, 1465 को जोधपुर से  बीकानेर बसाने के लिए रणबांकुरों की एक टोली लेकर निकल पड़े।

दरअसल, यह घटना भर नहीं थी। इसके पीछे रानियों की अंतर्कलह थी। एक रानी चाहती थी, उसका बेटा राव जोधा का उत्तराधिकारी बने। यह तभी संभव था, जब बीका वहाँ नहीं रहे। वह जोधा की प्रिय थी तो जोधा ने राव बीका को हटाने के लिए यह तरीका निकाला।


बीका ने बीकानेर 1488 में बसाया (पिता का घर छोड़ने के 23 साल बाद) ; लेकिन किला बनना शुरू हुआ 1485 में। किले के लिए नापा सांखला जगह तलाश कर रहा था तो एक भेड़ अपने लेळिए (भेड़ का बच्चा) को बचाने के लिए भेड़िए से भिड़ी हुई थी। भेड़िया भागा तो नापा स्तब्ध रह गया। उसने आसपास देखा तो भुरट (एक लंबी घास, जिसके बहुत कांटे होते हैं) के ढेर पर एक आदमी सोया हुआ है और पास ही साँप फन फैलाए तसल्ली से बैठा है। उन्हें यही जगह सबसे उपयुक्त लगी। यह कोड़मदेसर वाला इलाक़ा था।

एक मतीरे के लिए कर बैठे युद्ध
आपको भरोसा न होगा कि यह एक मतीरे के लिए युद्ध कर बैठने वाला इलाका भी है। 1644 में रियासत के सीलवा गांव के एक खेत में बेल के बहुत बेहतरीन मतीरा लगा।

बेल एक दूसरे खेत में चली गई। यह खेत गाँव जाखणियां था, जो नागौर रियासत में था।

मतीरा तोड़ा जाने लगा तो जाखणिया के किसान ने आपत्ति की कि बेल ज़रूर आपके खेत की है; लेकिन मतीरा तो हमारे खेत में है। इसलिए इस पर हमारा अधिकार है।

विवाद इतना बढ़ा कि दोनों रियासतों में युद्ध शुरू हो गया। नागौर की सेना का नेतृत्व सुखमल सिंघवी ने किया, जबकि बीकानेर का रामचंद्र मुखिया ने।

उस समय बीकानेर क राजा करणसिंह थे और वे मुगलों के लिए दक्षिण अभियान पर थे। नागौर शासक राव अमरसिंह भी मुग़ल-सेवा में थे।

इस युद्ध में बीकानेर की सेना जीती और मतीरा तोड़कर ले गई।

राजपूत बनाम जाट राजनीति का एक अलग ही चेहरा
पूरे प्रदेश में इतिहास से लेकर वर्तमान तक राजपूत और जाट एक दूसरे के प्रति भयंकर विरोधी रहे हैं; लेकिन बीकानेर रियासत में तासीर उलटी है।

वजह ये कि गोदारों और सारणों में युद्ध हुआ तो बीकानेर राजा गोदारों के पक्ष में रहे और उन्हें जितवाया। गोदारों को अधिकार दिया गया कि उनकी राज में हिस्सेदारी रहेगी। वे हर घर से एक रुपया चूल्हा टैक्स और एक सौ बीघा जमीन पर दो रुपए फ़सल कर वसूल सकेंगे। ये टैक्स आज़ादी के बाद तक जारी थे।

इसके बाद सारण, कस्वां, बेनीवाल, पूनिया, सिहाग और जोइया भी राजा के साथ जुड़ गए। इसका असर आपको पहले चुनाव से लेकर 1971 तक महाराजा करणीसिंह के साथ तो दिखाई देगा ही, बाद में भी इसके असर साफ़ हैं।

धर्म बदलकर बीकानेर का आधा राज लिखवा लिया
बीकानेर के एक शासक हुए अनूपसिंह (1669-1698)। यह औरंगज़ेब का समय था। अनूपसिंह के एक सौतेले भाई वनमालीदास ने औरंगज़ेब के सामने धर्म बदला और बादशाह से आधा बीकानेर नाम लिखवा लिया। अनूपसिंह को इस मामले में बहुत युक्ति से काम लेना पड़ा और बीकानेर का विभाजन रुका।

आज बीकानेर में हमें जिस साहित्य, संगीत और कला की महक दिखाई देती है, उसके पीछे सबसे बड़ा योगदान राजा रायसिंह और अनूपसिंह का है। रायसिंह (1574-1612) स्वयं बहुत अच्छे कवि थे।

एक बार अकबर ने उन्हें दक्षिण के एक अभियान पर भेजा तो उन्हें वहाँ एक फोग दिखाई दिया तो वे उससे लिपट पड़े और दोहा कहा :

तूं   संदेसी   रूंखड़ा,   म्हे   परदेसी   लोग।
म्हानै अकबर तेड़िया, तूं क्यूं आयो फोग?

अनूपसिंह के समय कामशास्त्र, तंत्रशास्त्र, ज्योतिष और धर्मशास्त्र के ग्रंथ लिखे गए। उनके दरबार में भाव भट्‌ट जैसे संगीतज्ञ थे।

एक राजा गजसिंह (1745-1787) हुए, जो इतने साहित्य प्रेमी थे कि एक कवि ने उन्हें अपनी काव्य पुस्तक भेंट की तो उन्होंने उसे दो हज़ार रुपए, एक हाथी, एक घोड़ा और सिरोपाव सहित बहुत सारे पुरस्कार दिए। इससे कवि की हालत ख़राब हो गई।

गजसिंह अपने 61 बच्चों के कारण भी बहुत प्रसिद्ध थे।


बीकानेर रहा सदा दिल्ली का दिलबर
बीकानेर के शासकों के रिश्ते दिल्ली से शुरू से ही बहुत घनिष्ठ रहे। भले वह कोई काल रहा। बीकानेर महाराजा सरदारसिंह 1857 में अंगरेज़ों की मदद में अग्रणी थे। उन्होंने पांच हजार घुड़सवार हांसी, हिसार और सरसा भेजे थे।

बीकानेर पूरे देश में अकेला ऐसा राज्य था, जो अंगरेज़ों की मदद में विद्रोहों को दबाने के लिए राज्य के बाहर भी गया। अंगरेज़ों ने इसी से ख़ुश होकर बीकाने को टीबी परगना के 41 गांव दिए थे।

क्रूरता की हदें पार
बीकानेर के कुछ शासकों ने क्रूरता की हदें भी पार कीं। राजा गजसिंह की मृत्यु पर उनका बेटा राजसिंह शासक हुआ तो उसकी सौतेली माँं ने ही उसेे ज़हर दे दिया और बेटे सूरतसिंह को शासक बनाना चाहा। लेकिन गजसिंह का बेटा प्रतापसिंह शिशु था। सूरतसिंह के मुक़ाबले में प्रतापसिंह की बड़ी बहन डटी रही। उसने भाई का बहुत ख़याल रखा। इस बहन की शादी करवाकर सूरतसिंह ने एक दिन शिशु प्रतापसिंह का गला घोंट दिया और राजा बन गया।

ऐसे-ऐसे टैक्स!
बीकानेर और जैसलमेर ख़तरनाक़ करों के कारण कुख्यात रहे। यहाँ चूल्हा जलाने, भेड़, बकरी, गाय, भैंस रखने पर तो टैक्स लगता ही, ऊँट पर दुगना टैक्स देना पड़ता। इस स्त्री और पुरुष पर टैक्स लगता था। किसान के हल तक पर पांच रुपए टैक्स था।

टैक्स की रसीद पर भी टैक्स
टैक्स जमा करने की रसीद पर भी टैक्स था। गढ़ के निर्माण और मरम्मत, जागीदार के यहाँ मौत होती तो टैक्स, गडरियों पर भेड़ के ऊन से कंबल बनाने पर टैक्स, राजपरिवारों में भोज के लिए हर घर से एक से दौ रुपए, खरड़ा, खीचड़ी, घर गिनती, घी पर टैक्स था।

जागीरदारों की महिलाएं नया चूड़ा पहनतीं तो टैक्स
जागीदार ने घोड़ा खरीदा तो टैक्स, चराई के टैक्स तो थे ही, राजपरिवारों या जागीरदारों की महिलाएं नया चूड़ा पहनतीं तो उसका टैक्स भी वसूला जाता था। ऐसे कितने ही टैक्स बीकानेर की जनता पर लगाए गए थे। लेकिन इलाके के लोगों को ये महाराजा उतने ही अच्छे लगते थे, जितना टैक्स वसूलते थे। उन्होंने कभी विद्रोह नहीं किया।

घुड़पड़ी लाग!
एक ठाकुर की घोड़ी एक गांव के बीच मरी तो लोगों ने उसे नई घोड़ी ले दी। लोगों ने सोचा कि फ़सल के समय ये पैसा टैक्स में कट जाएगा। लेकिन ठाकुर ने अगले साल फिर कहा कि घोड़े की लाग दो। किसान बोले,  क्यों? वो तो दे दी थी। ठाकुर बोले, वह गर्भवती थी और उसके बच्चे होने वाला था। घोड़ी हर साल एक बच्चा देती है। ठाकुर यह लाग वर्षों तक वसूलता रहा। इससे घुड़पड़ी लाग नाम दिया गया!

रेल, बिजली और नहर
बीकानेर में 9 दिसंबर 1891 को रेलगाड़ी और 1886 में बिजली आ गई थी; क्योंकि यहाँ कैप्टेन बर्टन 1854 से शासन का निर्देशन कर रहे थे और पीजे फैगन ने पंजाब से आकर 1884-85 में खालसा गाँवों का सेटलमेंट शुरू कर दिया था। सर ऑरेल स्टेन और जीडी रुडकिन कैनाल सिस्टम के बारे में प्लान करने में लगे थे। इलाके में नहरें उनके समय में ही आईं।

गंगासिंह : रेत को जलकणों तक
बीकानेर ने महाराजा गंगासिंह के समय किंवदंतियों में जगह बना ली। वे एक वर्ग में अत्याचारी शासक थे, एक में न्यायप्रिय और एक में कुशल प्रशासक और समृद्धियों के सूत्रधार।

लेकिन एक भीतर की अनकही बात ये है कि वे बहुत डिप्लोमैट थे। उनका बचपन और विद्यार्थी काल ब्रिटिश अफ़सरों की देखरेख में बीता था। मेयो में पढ़े। वाॅयसराय से लेकर महात्मा गांधी तक अंतरंग रिश्ते। बीकानेर में आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोग महाराजा के ज़ुल्मोसितम की शिकायतें करते तो गांधी भी टाल देते।

गाँधीजी की समुद्री यात्रा का प्रबंधन किया था महाराजा गंगासिंह ने
वजह थी महाराज और महात्मा के निजी रिश्ते। महात्मा गांधी के लिए समुद्री यात्राओं की व्यवस्थाएं महाराजा ही करते थे। गांधी जी गंगासिंह को ‘मित्रों के लिए समुद्री यात्राओं का आम प्रबंधक’  कहा करते थे। मसलन, जुलाई 1931 में महात्मा गांधी को गोलमेज सम्मेलन के लिए ब्रिटेन जाना था तो महाराजा गंगासिंह ने उनके लिए मुंबई स्थित अपने ट्रेवल एजेंट कॉक्स ऐंड किंग्स होर्नवी रोड से व्यवस्थाएं करवाईं।

गांधीजी के लिए मुलतान से 15 अगस्त 1931 को छूटने वाले जहाज के डेक पर फस्ट क्लास का दो बर्थ वाला एक कमरा गंगासिंह ने ही बुक करवाया। इसके अलावा गांधीजी के रसोइए और तेल वाले एक चूल्हे की अलग से व्यवस्था करवाई गई। यह द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की बात है, जो 7 सितंबर, 1931 से 1 दिसंबर, 1931 तक होना था। गांधीजी महाराजा के मुंबई आवास पर आते-जाते रहते थे।

जयनारायण व्यास की रिहाई के लिए पत्र
महाराजा ने एक बार जोधपुर के मुख्यमंत्री डीएम फील्ड को जो पत्र लिखा, वह उनके एक अलग व्यक्तित्व को रेखांकित करता है। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी जयनारायण व्यास को न केवल रिहा करने के लिए लिखा, उन्हें महाराजाओं का क्रूर और कट्‌टरविरोधी तो बताया, लेकिन साथ ही लिखा कि उन्होंने ऐसा सच्चा, किसी भी तरह से भ्रष्ट न किया जा सकने वाला और हर परिस्थिति में सच के साथ डटा रहने वाला इन्सान बताया।

लेकिन महाराजा ने ख़ुद 1928 में सेठ जमनालाल बजाज को बीकानेर में नहीं घुसने दिया। गंगासिंहकी निरंकुशता का एक उदाहरण ये है कि 1921 में प्रिंस ऑव वेल्स बीकानेर आए तो आम जलसे में शामिल दो छात्रों को निकलवाकर इसलिए डंडों से पिटवाया, क्योंकि वे खादी पहने और गाँधी टोपी लगाए थे। बीकानेर षड्यंत्र केस और दूधवा खारा कांड तो मशहूर हैं ही।

स्कूल तक नहीं खोलने दिए थे और आधुनिक माने गए
गंगासिंह को लोग न्यायप्रिय शासक मानते हैं। लेकिन उनके समय में शिक्षा का आंदोलन चलाने वाले आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं, स्कूल खोलने वाले लोगों, स्वतंत्रता की माँग करने वालों और कम्युनिज्म की बात करने भर पर जाने कितने ही लोगों को देश निकाला दिया गया। हालांकि उन्होंने खुद स्कूल खोले थे।

वामपंथी और आर्यसमाजी फूटी आँख नहीं सुहाते थे
उनके ख़िलाफ़ न अंगरेज़ों ने सुनी, न काँग्रेस के दिल्ली के बड़े नेताओं ने। इसके बावजूद उन्हें एक आधुनिक शासक माना जाता रहा है। उन्हें लगता था कि शिक्षा से जनजागृति आएगी और उनकी राजशाही ढह जाएगी। आर्यसमाज और कम्युनिज़्म के लिए वे बहुत ख़राब शब्दों का इस्तेमाल करते थे।

गांधीजी की हत्या पर सफ़ेद साफ़ा पहना शार्दूलसिंह ने
गांधीजी की हत्या हुई तो महाराजा शार्दूलसिंह ने शोक के रूप में सफ़ेद साफ़ा बांधा। अपने निकट परिजन की मृत्यु के अलावा महाराजा कभी सफ़ेद साफ़ा नहीं बांधते थे।

चौथाई सदी तक संसदीय क्षेत्र में महाराजा का वर्चस्व
संभवत: देश का इकलौता ऐसा इलाका, जहाँ 1952 से 1971 तक पांच चुनाव लगातार एक निर्दलीय जीता। यह निर्दलीय कोई और नहीं ‘बीकानेर-महाराजा’ करणीसिंह थे।

1952 का पहला चुनाव :
आपको यह जानकर और हैरानी होगी कि बीकानेर-चूरू नाम वाली इस सीट पर काँग्रेस ने 1952 के पहले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार ‘बीकानेर-महाराजा’ करणीसिंह के सामने आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले कितने ही बेहतरीन नेताओं के बजाय बहुत बड़े उद्योगपति रायबहादुर खुशालचंद डागा को उम्मीदवार बनाया था। डागा परिवार अरसे से उच्च श्रेणी का अंगरेज़-भक्त था। चुनाव के समय खुशालचंद नागपुर में बंसीलाल अबीरचंद फ़र्म चला रहे थे।

निर्वाचन आयोग के दस्तावेज़ों में खुशालचंद के बजाय राजा कुशालसिंह अंकित है, जो ग़लत है।

और माँ अनशन पर बैठ गई!
खुशालचंद डागा नामांकन भरने के लिए आए तो उनकी माँ ने विरोध किया और बेटे से कहा कि तू महाराजा साहब के सामने कैसे चुनाव लड़ सकता है? बेटा नहीं माना तो वे अनशन पर बैठ गईं!

पुराने दस्तावेज़ बताते हैं कि कुंभाराम आर्य, हरदत्तसिंह आदि कई प्रमुख नेता थे; लेकिन वे महाराजा के ख़िलाफ़ लड़ने को तैयार नहीं हुए। इलाक़े के प्रमुख नेता रघुवरदयाल गोइल टिकट के दावेदार थे। लेकिन नहीं मिला तो वे किसान जनता संयुक्त पार्टी से चुनाव लड़े।

गाेइल ने ही 22 जुलाई, 1942 को बीकानेर राज्य प्रजा परिषद की स्थापना की थी और महाराजा गंगासिंह से लेकर महाराजा शार्दूलसिंह के शासकीय अत्याचारों को सहा था। 1942 में तो उन्हें राज्य से ही निर्वासित कर दिया गया था। उन्होंने इस पाबंदी को तोड़ा तो उन्हें एक साल की सजा दे दी गई।

गोइल के कद का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जब राज्य में हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में 7 अप्रैल, 1949 को सरकार बनी तो वे कैबिनेट में शामिल किए गए।

डागा : बीकानेर की सुपर राजसी शख़्सियत
काँग्रेस उम्मीदवार रायबहादुर सर दीवान बहादुर कस्तूरचंद डागा के बेटे थे, जिन्हें 1909 में ब्रिटिश सरकार से सीसीआई यानी कंपैनियन ऑव दॅ मोस्ट एमिनेंट ऑर्डर ऑव दॅ इंडियन एंपायर और केसीआईआई यानी नाइट कमांडर ऑव दॅ ऑर्डर ऑव दॅ इंडियन एंपायर जैसी उपाधियां मिली हुई थीं।

डागा बीकानेर के बड़े बैंकर, ज़मींदार और मिल मालिक थे। उस परिवार के अबीरचंद डागा को भी रायबहादुर की उपाधि मिली हुई थी। वे 1855 में बैंक ऑव बंगाल के कैशियर थे। उनकी मध्यप्रांत और बरार में कॉटन मिलें थीं।

वे उस दौर में नागपुर की इलेक्ट्रिक लाइट और पावर कंपनी के अध्यक्ष थे। उन पर आर्म्स एक्ट लागू नहीं हो सकता था। उन्हें किसी भी सिविल न्यायालय में उपस्थिति से छूट थी। उन्हें यह भी छूट थी कि वे बीकानेर रियासत में किसी भी प्रकार का टैक्स नहीं दें।

डागा ने बहुत से कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया था। बाज़ार बनवाए और मंडप सजवाए थे। इस परिवार को 1898, 1903 और 1911 के ब्रिटिश दरबारों में पदक और उपाधियों से नवाज़ा गया था।

पहला पैराशूट
कहते हैं कि यह टिकट गवर्नर जनरल माउंटबैटन की सिफ़ारिश से आया था। लेकिन यह तय है कि भारतीय चुनावी इतिहास का यह पहला पैराशूट टिकट था।

पहले चुनाव की सबसे दिलचस्प बातें :
जूनागढ़ में चौधरियों का वह जीमण
1952 के पहले चुनाव में बीकानेर में पिचोतरा का सिस्टम था। इसे ऐसे समझें कि इलाक़े में ज़ागीरदारों के भी नीचे चौधरी थे, जो ज़्यादातर कृषि संबंधी काम करने वाली एक ताक़तवर जाति से थे। ये किसानों से टैक्स वसूलते थे तो इन्हें 75 रुपए में एक रुपया कमिशन मिलता था। इसीलिए इस सिस्टम को पिचोतरा कहते थे। निर्दलीय उम्मीदवार ‘बीकानेर-महाराजा’ करणीसिंह ने नामांकन भरने के साथ ही इन चौधरियों का एक बड़ा जीमण (भोज) जूनागढ़ के बरामदों में किया।

महाराजा बैठे सोने की कुर्सी पर, चौधरी टाट-पट्‌टियों पर
‘बीकानेर-महाराजा’ ने वह चुनाव बाकायदा राजसी वशेभूषा में लड़ा। जीमण के दिन भी वे इसी वेशभूषा में थे। भोज के दौरान राजा सोने के सिंहासन पर बैठे। चौधरियों को टाट-पट्टियों पर बिठाया गया। उनकी थाली में गेहूं के दो-दो फुलके परोसे गए। उन्हें घी से तर किया गया। उन दिनों गेहूं देखने को भी नहीं मिला करता था। बाकी थाली में खाने को बाजरे का खीचड़ा और कढ़ी थी। बूरा भी डाला गया।

और चौधरी दुहरे होकर बोले – हुकुम अन्नदाता, बोट के चीज है, थे केओ तो माथो कटा द्यां!
बताते हैं कि चौधरी जीमते गए और ‘भोटा लिस्ट’ लेते गए। उस पहले चुनाव में आम लोग वोटर लिस्ट को भोटा लिस्ट कहते थे। वे भोटा लिस्ट लेते, महाराजा के सामने दुहरे होते और कहते कि महाराजा सा बोट के चीज़ है, थे केओ तो माथो कटा द्यां! यानी वोट तो वोट, आप कहें तो इस चुनाव में आपके लिए यह सिर भी कटा दें!

महाराजा ने वह चुनाव 62.87 प्रतिशत वोट लेकर जीता। खुशालचंद डागा को 54,227 वोट मिले। जीत-हार का अंतर 63,699 वोटों का रहा।

उस चुनाव में काँग्रेस का अपने क्रांतिकारी आंदोलन लड़ने वाले नेताओं से कहीं अधिक मोह सेठ-साहूकारों पर था। जैसे गंगानगर-झुंझुनूं से राधेश्याम मुरारका को टिकट दिया गया तो सीकर से कमल नयन बजाज को।

महाराजा का प्रभाव इतना था कि गोइल और व्यास को कुल पंद्रह हजार और कुछ ही वोट मिले।

दूसरा लोकसभा चुनाव : 1957

महाराजा करणीसिंह फिर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतरे। काँग्रेस ने प्रो. केदारनाथ को टिकट दिया। इसमें सीपीआई के हरिराम थे।

1957 के परिसीमन में झुंझुनूं को अलग कर दिया गया था। गंगानगर को शामिल कर बीकानेर सीट बनी थी। महाराजा को 2,28,267 वोट मिले और वे प्रो केदार से 98,964 वोट से जीते।

प्रो. केदार 1952 में गंगानगर-झुंझुनूं डबल सीट पर सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे।

बीकानेर सीट 1957 में भी डबल रही और यहाँ से काँग्रेस के पन्नालाल बारूपाल एससी सीट उम्मीदवार के रूप में जीते। बारूपाल और प्रो केदार को मिले वोटों की तुलना करें तो उस चुनाव में एससी मतदाताओं ने काँग्रेस के उम्मीदवार और स्वतंत्रता सेनानी प्रो. केदार के बजाय महाराजा के पक्ष में वोट किया था। प्रो. केदार को वोट मिले थे 1,29,303 और पन्नालाल बारूपाल को 1,41,293 वोट।

तीसरे लोकसभा चुनाव : 1962 की दिलचस्प बातें

और दो चुनावों में महाराजा के सामने काँग्रेस हाईकमान ने किया था सरेंडर
1962 और 1967 के चुनाव में काँग्रेस ने महाराजा के सामने समर्पण कर दिया और उसने इन दोनों चुनावों में अपना कोई उम्मीदवार ही नहीं उतारा।

1960 में महाराजा करणीसिंह के सामने एक निर्दलीय उम्मीदवार किशनाराम थे और दूसरे थे सीपीआई के सुमेरसिंह।

उस चुनाव में भी था रवींद्रसिंह भाटी जैसा एक विद्रोही छात्र नेता

आजकल जैसे बाड़मेर में रवींद्र भाटी का नाम है, वैसे ही उन दिनों सुमेरसिंह का नाम युवाओं के सिर चढ़कर बोल रहा था।

सुमेरसिंह नीम का थाना के थे और डूंगर कॉलेज बीकानेर के छात्र नेता थे। वे हार्डकोर वामपंथी रुझान वाले निर्भीक युवा थे।

उन्होंने जब देखा कि महाराजा के ख़िलाफ़ सभी नेता डर गए हैं और कोई खड़ा नहीं हो रहा तो उन्होंने ताल ठोक दी। वे डूंगर कॉलेज के प्रेजिडेंट भी रहे थे। वे बहुत ज़हीन-शहीन और संघर्षों में अग्रणी थे।

वे इस चुनाव में तो तीसरे नंबर पर रहे; लेकिन इस चुनाव से मिली अपार लोकप्रियता ने उन्हें पूरे उत्तर भारत में मशहूर कर दिया। उन्होंने हरियाणा में भी बहुत काम किया।

वह वामपंथी रुझान के नक्सलवादी आंदोलन के दिन थे और हर युवा तब उस तरफ ही झुक रहे थे। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज तक खाली होने लगे थे।

उस दौर में सुमेरसिंह की राजस्थान-हरियाणा वाले इलाके ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में तूती बोलती थी। उन्होंने ‘अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें’ और ‘मज़दूर डायरी’ जैसी किताबें भी लिखीं।

चौथा लोकसभा चुनाव : 1967

निर्भीक युवा वकील अक्षयचंद्र का साहस
1967 के चुनाव में महाराजा करणीसिंह के लिए काँग्रेस ने पूरा मैदान साफ़ कर दिया था। ऐसे में महाराजा के सामने ताल ठोकी तीस वर्षीय एक निर्भीक युवा वकील अक्षयचंद्र गोदारा ने।

वे एक सामान्य किसान परिवार से थे और उनके पास महज पांच सौ रुपए थे, जो उन्होंने जमानत राशि के रूप में जमा करवा दिए।

अक्षयचंद्र गोदारा ने आर्थिक संकट को देखते हुए नाम वापसी की सोची तो एक बहुत रोचक वाकया हुआ।

और पहली महिला कलक्टर की वह पहल
उन दिनों बीकानेर कलेक्टर ओटिमा बोर्डिया थीं, जो प्रदेश की पहली महिला कलक्टर थीं। वे निर्वाचन अधिकारी भी थीं।

गोदारा ने जब कहा कि वे नामांकन वापस लेना चाहता हैं तो बोर्डिया ने कहा, आप लेट हो गए हैं। गोदारा ने उन्हें घड़ी दिखाई कि नहीं, मैडम अभी समय है। बोर्डिया ने कहा, नहीं समय हो चुका है। आप लेट हैं।

लेकिन बाद में उन्होंने गोदारा को चुपके से समझाया, मैं चाहती हूँ तुम जैसा युवा महाराजा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े। आख़िर इस देश में लोकतंत्र क्यों आया है! इसके बाद गोदारा ने नाम वापस नहीं लिया और वे रणभूमि में उतर गए।

बाद में बेटी बनी राजस्थान की आईएएस
इसी लम्हे में शायद एक प्रेरक कहानी ने भी जन्म लिया। अगर यह घटना न हुई होती तो शायद आज राजस्थान प्रशासनिक सेवा के कैडर में एक आईएएस नहीं होती। गोदारा ने बाद में अपनी बेटी कोई आईएएस बनाया।

महाराजा चिड़ीमार!
गोदारा जीप लेकर प्रचार में उतरे तो सुजानगढ़ के पास पारेवड़ा गांव में एक ग़ज़ब किस्सा हुआ। यह राजपुरोहितों का गांव था। गोदारा को पता था कि ये सब राजभक्त हैं। उन्होंने महाराजा गंगासिंह सहित सबकी तारीफ़ की। फिर बोले, मेरा चुनाव निशान है चिड़िया और महाराजा करणीसिंह हालांकि अच्छे आदमी हैं; लेकिन वे चिड़ीमार हैं। बंदूक से चिड़ियाें का शिकार करते हैं। महाराजा इलाके में आए तो उन्हें इस प्रचार की ख़बर लगी। परिणाम आया तो महाराजा को इन गांवों में बहुत कम वोट मिले।

महाराजा को वोट मिले 2,15,636; लेकिन महाराजा के सामने अक्षयचंद्र गोदारा मुख्य टक्कर में रहे। वे सुधारवादी परिवार से हैं और उन्होंने बेटियों को शिक्षित करने के लिए बहुत काम किया है। तीन में से उनकी अपनी एक बेटी आईएएस (अनुप्रेरणा कुंतल) हैं।

और महाराजा बोले, देखो-मैं चिड़ीमार नहीं हूँ!
चुनाव के बाद महाराजा ने गोदारा को सम्मान बुलाया, खिलाया-पिलाया और अपनी जोंगाजीप में बिठाकर शूटिंग रेंज में ले जाकर सफाई दी, देखो-मैं चिड़ीमार नहीं हूँ!

पाँचवाँ लोकसभा चुनाव : 1971
जातिगत राजनीति का आत्मघाती खेल
1971 के लोकसभा चुनाव में महाराजा करणीसिंह फिर निर्दलीय लड़े; लेकिन इस बार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भृकुटियां राजघरानों के प्रति तन गई थीं। उन्होंने महाराजा के ख़िलाफ़ काँग्रेस के टिकट पर भीमसेन चौधरी को उतारा। भीमसेन चौधरी पूर्व मंत्री वीरेंद्र बेनीवाल के पिता थे।

भीमसेन चौधरी ने ज़बरदस्त टक्कर दी और अगर मुक़ाबले में एक प्रमुख जाट नेता नहीं उतरते तो महाराजा वाक़ई यह चुनाव हार जाते। काँग्रेस ने उस समय भीमसेन चौधरी को क़रीब एक महीने पहले टिकट दे दिया था। लेकिन कुछ बड़े नेताओं काे यह नहीं सुहाया।

जीत की जुगत और जाति का जंतर
इस चुनाव में महाराजा बहुत आशंकित थे। उन्होंने कूटनीति से काम लिया। अगर पुराने किस्सों पर भरोसा करें तो राजमाता ने कुंभाराम आर्य को बुलवाया और विचार किया। वे बोले, म्हारै कन्नैं तो है दौलत पण वा दौलत कोनी, जिकी थां कन्नैं है। थाँ कन्नै बा दौलत कोन्नी जिकी म्हारै कन्नैं है। दोन्यूं दौलत मिल जावै तो थांरी अर म्हांरी चिंता खत्म। इसके बाद चुनाव में बीकेडी से दौलतराम सारण लड़े। जाट वोट बंटे और महाराजा 48,432 वोट से बमुश्किल जीत सके।

जयपुर में महारानी गायत्री देवी के यहाँ छापों की कार्रवाई से महाराजा चिंतित हो गए थे। उन्होंने 25 वर्ष एकछत्र निर्दलीय शासन किया और अब राजनीति को विदा कह दिया।

छठा लोकसभा चुनाव : 1977

महाराजा पांच बार लगातार निर्दलीय सांसद रहे। साल 1977 के चुनाव में काँग्रेस के उम्मीदवार थे रामचंद्र चौधरी और सामने थे बीएलडी के हरिराम मक्कासर। मक्कासर हनुमानगढ़ जिले का गांव है और वे माकपा नेता श्योपतसिंह के पिता थे। इस चुनाव में सीपीआई के योगेंद्र नाथ हांडा भी उतरे। हरिराम मक्कासर भारी बहुमत से जीते।

सातवां लोकसभा चुनाव : 1980
1980 में इस सीट से काँग्रेस के मनफूल सिंह भादू जीते, जो सूरतगढ़ से थे। उन्होंने हरिराम मक्कासर को हराया, जो जनता पार्टी सेक्युलर के टिकट पर लड़े थे।

आठवाँ लोकसभा चुनाव : 1984
इंदिरा सहानुभूति लहर
साल 1984 का चुनाव इंदिरा लहर का चुनाव था। इसमें काँग्रेस के मनफूल राम जीते और जनता पार्टी के प्रोफेसर केदार हार गए थे। उस चुनाव में गंगानगर के काँग्रेसी नेता राधेश्याम ने परोक्ष रूप से प्रो. केदार को विजयी बनाने के भरसक प्रयास किए थे, ताकि गंगानगर विधानसभा सीट प्रो. केदार से मुक्त हो जाए। लेकिन केदार हार गए। लोकदल उम्मीदवार कुंभाराम आर्य इस चुनाव में बुरी तरह हारे और तीसरे नंबर पर रहे। भाजपा ने इस साल सरोज को अपना उम्मीदवार बनाया, जिन्हें महज 11,710 वोट मिले।

नौवां लोकसभा चुनाव : 1989
केदार को सालता रहा यह दर्द और धोखा
साल 1989 में जनता दल से प्रो. केदार की उम्मीदवारी पक्की थी; लेकिन केंद्रीय नेताओं पर दबाव डालकर माकपा नेता हरकिशनसिंह सुरजीत ने श्योपतसिंह को टिकट दिलवा दिया।

उस समय राजस्थान के लिए भाजपा और जनता दल के बीच 13 और 12 सीटों का समझौता हुआ था।

प्रो. केदार के लिए यह बहुत दर्दनाक़ समय था, जब वामपंथी नेताओं ने उनके साथ बड़ी चोट की। प्रो. केदार का दावा इसलिए भी था; क्योंकि वे पिछला चुनाव यहीं से हारे थे।

श्योपतसिंह अपने पिता हरिराम मक्कासर की विरासत का दावा लेकर आए और प्रो. केदार को मैदान से बहुत अपमानजनक तरीके से हटवाने में कामयाब रहे।

इस चुनाव ने समाजवादी और वामपंथी नेताओं का उस पुख़्ता रिश्ते को पलीता लगा दिया, जो कई दशक से चला आ रहा था। श्योपतसिंह इस चुनाव में जीते और मनफूल सिंह भादू हारे। प्रो. केदार को टिकट कटने का अफ़सोस जीवन भर रहा।

दसवाँ लोकसभा चुनाव : 1991
माकपा नेता श्योपतसिंह तीसरे नंबर पर
साल 1991 में मनफूलसिंह भादू जीते और भाजपा के गिरधारीलाल भोभिया हारे। माकपा नेता श्योपतसिंह तीसरे नंबर पर रहे और उनको महज 82,945 वोट मिले। इस चुनाव में अकाली दल मान ने भी अपना उम्मीदवार उतारा था।

ग्यारहवाँ लोकसभा चुनाव : 1996
महेंद्रसिंह भाटी जीते
साल 1996 में भाजपा ने देवीसिंह भाटी के बेटे महेंद्रसिंह भाटी को टिकट दिया तो वह मनफूलसिंह भादू पर भारी पड़े और जीत गए। इस तरह भाजपा 1996 में पहली बार इस सीट पर कामयाब हुई।

बारहवाँ लोकसभा चुनाव : 1998
जाखड़ पैराशूट
साल 1998 में काँग्रेस नेता बलराम जाखड़ पैराशूट से यहाँ उतरे और उन्होंने भाटी को हराया।

तेरहवाँ लोकसभा चुनाव : 1999
डूडी का सितारा
साल 1999 में भाजपा ने हनुमानगढ़ जिले के पीलीबंगा से किसान नेता रामप्रताप कासनिया को उतारा तो काँग्रेस ने रामेश्वर डूडी को। डूडी जीते।

चौदहवाँ लोकसभा चुनाव : 2004
भाजपा का युग शुरू, काँग्रेस को विदा : फ़िल्म स्टार धर्मेंद्र को उतारा
साल 2004 में इस सीट से भाजपा ने फ़िल्म स्टार धर्मेंद्र को उतारा तो डूडी टिक नहीं पाए। धर्मेंद्र इस इलाके के चप्पे-चप्पे में घूमे और लोगों ने दोनों उम्मीदवारों को खूब वोट दिए। लेकिन इतना बड़ा हीरो महज 57,175 वोट से जीत सका। इस चुनाव में कॉँग्रेस को डूडी के रूप में नया हीरो मिला; लेकिन वे कई बड़े नेताओं के निशाने पर आने से हाशिए पर धकेल दिए गए।

धर्मेंद्र को उतारने की वजह ये थी कि इलाके के कद्दावर नेता देवीसिंह भाटी ने सामाजिक न्याय मंच बना लिया था और वे भाजपा के ख़िलाफ़ थे।

पंद्रहवाँ लोकसभा चुनाव : 2009

साल 2009 में भाजपा ने पूर्व आईएएस अर्जुन मेघवाल को उतारा तो सामने काँग्रेस से आए रेंवतराम पंवार, बसपा से गोविंद राम मेघवाल और माकपा से पवन दुग्गल। मेघवाल 19,486 वोट से जीते।

सोलहवाँ-सतरहवाँ लोकसभा चुनाव : 2014-़19

2014 के चुनाव में अर्जुन मेघवाल गंगानगर के पूर्व सांसद शंकर पन्नू के तो 2019 के चुनाव में काँग्रेस के मदनगोपाल मेघवाल से जीते। वे केंद्र में उस पद पर पहुँचे, जिस पर कभी बीआर अंबेडकर थे।

2024 के चुनाव की बिसात बिछी हुई है।

बीकानेर के अब तक रहे सांसद
1952 : करणीसिंह निर्दलीय
1957 : करणीसिंह निर्दलीय
1962 : करणीसिंह निर्दलीय
1967 : करणीसिंह निर्दलीय
1971 : करणीसिंह निर्दलीय
1977 : हरिराम मक्कासर जनता पार्टी
1980 : मनफूलसिंह भादू काँग्रेस
1984 : मनफूलसिंह भादू काँग्रेस
1989 : श्योपतसिंह सीपीएम
1991 : मनफूलसिंह भादू काँग्रेस
1996 : महेंद्रसिंह भाटी भाजपा
1998  : बलराम जाखड़ काँग्रेस
1999 : रामेश्वर डूडी काँग्रेस
2004 : धर्मेंद्र भाजपा
2009 : अर्जुन मेघवाल भाजपा
2014 : अर्जुन मेघवाल भाजपा
2019 : अर्जुन मेघवाल भाजपा

(इस लेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक त्रिभुवन है। यह लेख उनके X अकाउंट से साभार लिया गया है।)

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