पार्टी बदलने से पहले क्यों ना एक बार जनता से भी पूछा जाए!

कहते हैं जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत जनता अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर अपने जनप्रतिनिधियों का चयन करती है।

सामान्यता यह माना जाता है कि हर राजनीतिक दलों की अपनी कुछ नीतियाँ, नैतिक मूल्य और सिद्धांत होते हैं।

उनके वह मूल्य,सिद्धांत और नीतियाँ सार्वजनिक रूप से घोषित होती हैं, जिससे प्रभावित होकर व्यक्ति का जुड़ाव संबंधित दल से होता है।

जनता भी उन्हीं घोषित सिद्धांतों के आधार पर संबंधित पार्टियों के उम्मीदवारों को अपना कीमती वोट देती है।

सामान्यतः यह भी माना जाता है कि राजनीतिक दल आपस में गठबंधन करते समय समान विचारधारा का ख्याल रखती है परंतु राजनीति की यह सारी धारणाएँ अब कपोल कल्पित समझी जाने लगी हैं।

पिछले कुछ दिनों से सियासत में जबरदस्त तब्दीली देखने को मिल रही है।

अब अधिकांशतः नेताओं के लिए न तो कोई नैतिक मूल्य है ,न मानक सिद्धांत है, न ही कोई स्थायी दल।

यहाँ तक कि राजनीतिक दलों की सत्ता हासिल करने लोलुपता इतनी प्रबल हो गई है कि वे अपने से विपरीत विचारधारा रखने वाली पार्टियों से भी समझौता करने से गुरेज नहीं करती।

बीते दिनों जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन हो या बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन ऐसे कई उदाहरण भारतीय राजनीति में देखने को मिल जाएंगे।

नेताओं के दल बदलने की बात की जाए तो यह महज गले पर गमछों के बदलने भर का खेल है। पल भर में उनकी भाषा, निष्ठा और नारे सब बदल जाते हैं।

हमने तो विपरीत विचारधारा वाली पार्टी से गठबंधन करते हुए और जनता के आकांक्षाओं को धता बताते हुए बिहार में रातोंरात सरकार बदलते भी देखा है।

हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेसी विधायकों द्वारा अपने ही पार्टी की सरकार को हटाने के लिए इस्तीफे देते देखा गया।

मध्यप्रदेश में भाजपा के दो विधायकों ने क्रास वोटिंग करते हुए अपनी पार्टी लाईन से हटकर कांग्रेस का समर्थन किया। देश में दलबल की ऐसी घटनाएं पहले भी हो चूकी हैं।

मानाकि नेताओं को अपनी पसंद के राजनीतिक दल चुनने और चयनित दल को त्याग कर दूसरे दल में शामिल होने की पूरी आजादी है और यह उनका निजी निर्णय है।

यहाँ स्वभाविक रूप से सवाल उठता है कि आखिरकार वह ऐसा क्यों करते है और क्या यह जनता के विश्वास के साथ छलावा नहीं है ?

निश्चय ही यह राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि है और दल बदल करनेवाला न सिर्फ जन की उपेक्षा ही करता है बल्कि बड़ी बेशर्मी से उसे अंगुठा भी दिखाता है।

जाहिर है कि जनता जब किसी उम्मीदवार के पक्ष में अपना मतदान करती है तो उसके समक्ष पार्टी विशेष की नीतियां, नैतिक मूल्य और सिद्धांत ही सर्वोपरि होती हैं।

जब कोई उम्मीदवार या दल अपनी घोषित नीतियों और सिद्धांतों से इतर दूसरे विपरीत सिद्धांत वालों के साथ गठबंधन करती है या दलबल करता है तो निःसंदेह वह जनतांत्रिक मूल्यों की घोर उपेक्षा करता है।

विचारणीय है कि क्या उन्हें ऐसा करते समय अपने मतदाताओं से नहीं पूछना चाहिए?

हालांकि देश में दलबल कानून भी बनाए गए हैं परंतु वह ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। हमारे जनप्रतिनिधि अपने निजी स्वार्थ के लिए बड़ी बेशर्मी से धड़ल्ले से ही मिन्टों में दल और सिद्धांत बदल रहे हैं।

हमारे नेताओं को ऐसा करते समय तनिक भी हिचक नहीं होती और न ही किसी पार्टी के दलबदलू नेताओं को पार्टी में शामिल करवाते समय कोई संकोच ही होता है।

हद तो तब हो जाती है जब किसी नेता को भ्रष्टाचारी कहकर कोसा जाता है और अगले ही पल अपनी बाँहें फैलाए उसे अपने दल में शामिल करा लेता है मानो उसकी पार्टी में आते ही उसके सारे दाग धूल गए हों। न मालूम यह पार्टी है या सर्फ एक्सल !

दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश को पार्टी विशेष से मुक्त कराने के नारे लगाए जाते हैं।

किसी दल का सफाया करने के लिए अब यह भी तरकीब निकाला जा रहा है कि दल विशेष के संबंधित नेताओं को धन, बल , पद का लालच देकर अपने में मिला लिया जाए।

विडंबना है कि नेता अपने आत्म स्वाभिमान को भी भूल जाते हैं और सत्ता से चिपटे रहने के लिए लालच में आकर दल बदलने में जरा भी संकोच नहीं करते।

ऐसे दल बदलू नेताओं पर आखिर विश्वास कैसे जताया जाए कि अब वे पुनः पार्टी छोड़कर नहीं जाएंगे?

यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता की मोह में नेता,अपनी जनता को यह बताना भूल जाते हैं कि आखिरकार वह दल क्यों बदल रहे हैं हालाँकि पब्लिक है कि, सब जानती है।

संभव है कि नेताओं के लिए पार्टी बदलना उसकी मजबूरी हो, पार्टी के साथ अच्छे संबंध नहीं रहे हों या फिर पार्टी अपने सिद्धांत से ही भटक गई हो, ऐसे में उन नेताओं को अपने पद से त्याग पत्र देकर अपनी पसंद के नई पार्टी के साथ पुनः जनता के बीच आना चाहिए ,जनता का समर्थन पाकर और पुनः जीतकर विधानसभा या संसद में जाना चाहिए ।

विचारणीय है कि क्या नेता सचमुच जनता को सर्वोपरि मानते हैं या सिर्फ वोट हासिल करने भर के लिए स्वयं को जनता का सेवक बताते है?

वास्तव में देश में दलबदल की प्रवृत्ति पर विराम लगाने और जन-उपेक्षा करने वाले नेताओं की हरकतों पर अंकुश लगाने के हेतु कारगार कदम उठाने होंगे।

जनतंत्र की सार्थकता के लिए नेताओं को निज स्वार्थ में दलबदल की शर्मनाक आदतें त्यागनी होंगी। उन्हें स्मरण रहे कि जिस जनता ने उन्हें चुना है उनके भी कुछ अधिकार हैं।


★ मंजर आलम

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख छपते रहते हैं)

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