21वीं सदी में बँधवा मज़दूरी ,कर्नाटक सरकार ने बिहारी मज़दूरों को घर भेजने वाले ट्रेनें रद्द की !


एक शब्द है ‘उपनिवेशवाद’…अंग्रेजी में इसे ‘कोलोनियलिज्म’ कहते हैं। हम सब स्कूली कक्षाओं में ही इसके बारे में पढ़ते हुए बड़े हुए। फिर…एक शब्द आया ‘नव उपनिवेशवाद’, जिसे अंग्रेजी में ‘नियो कोलोनियलिज्म’ बोलते हैं।

आम लोगों के लिये उपनिवेशवाद को समझना जितना ही आसान है, नव उपनिवेशवाद को समझना उतना ही जटिल। हम सब जानते हैं कि हमारा देश भारत सहित एशिया, अफ्रीका आदि के कई देश सदियों तक यूरोपीय शक्तियों के उपनिवेश रहे। फिर, एक दिन यह प्रत्यक्ष गुलामी इतिहास के अध्यायों में दफन हो गई।

लेकिन, हम इस पर अधिक ध्यान नहीं देते कि नव उपनिवेशवाद आज की दुनिया की ऐसी हकीकत है जो कुछ खास शक्तियों की गुलामी में पूरी मानवता को कैद रखने का मंसूबा पालता है।

इसकी कई परतें हैं। मसलन, कोई स्वतंत्र और संप्रभु देश किसी अन्य ताकतवर देश का अप्रत्यक्ष तौर पर गुलाम हो सकता है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था पर उसका नियंत्रण है, किसी देश का कोई इलाका उसी देश की कुछ शक्तियों का अप्रत्यक्ष उपनिवेश हो सकता है जिसके संसाधनों पर उसका नियंत्रण हो।

उसी तरह…किसी देश के नागरिकों का कोई बड़ा समुदाय किसी छोटे किन्तु शक्तिशाली समुदाय का गुलाम हो सकता है। यह गुलामी की पारंपरिक परिभाषाओं में फिट नहीं बैठता, क्योंकि इसे समझने के लिये गुलामी की नई परिभाषाएं गढ़नी होंगी। इसकी विशेषता यह भी है कि गुलामों को प्रत्यक्ष तौर पर अहसास भी नहीं होता कि वे किस तरह की गुलामी कर रहे हैं…कि किस तरह उनके अधिकारों का हनन कर उन्हें मनुष्य मानने से भी इन्कार किया जा रहा है।

अपनी गुलामी के प्रति ऐसी अनभिज्ञता लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होने देती और सिस्टम भी इस बात की पूरी तैयारी करता है कि वे सजग न होकर अपनी वास्तविकताओं से गाफिल रहें।

उपनिवेशवाद का इतिहास जितना रक्तरंजित और षड्यंत्रों से भरा है, नवउपनिवेशवाद से जुड़ी तल्ख सच्चाइयां उससे भी अधिक भयानक हैं।

माना जाता है कि ‘नियो कोलोनियलिज्म’ शब्द का पहली बार प्रयोग घाना के राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा ने 1957 में किया था। यह वह दौर था जब उपनिवेशवाद के चंगुल से कई निर्धन देश प्रत्यक्ष तौर पर तो मुक्त हो रहे थे, लेकिन उनमें से अनेक देशों की राजनीतिक संप्रभुता छलावा मात्र थी क्योंकि उनके संसाधनों पर किसी और का नियंत्रण था, उनकी अर्थव्यवस्थाएं किसी अन्य शक्ति के संकेतों से संचालित होती थीं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं नव उपनिवेशवादी शक्तियों के लिये सहायक उपकरण बन कर सामने आई थीं।

इस शब्द का जब हम अर्थविस्तार करते हैं तो बिहार जैसे राज्यों के गरीब मजदूरों की अप्रत्यक्ष गुलामी और इससे जुड़े शोषण, उत्पीड़न को, बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा देश के खनिज संसाधनों पर कब्जे आदि को भी नवउपनिवेशवाद के अंतर्गत ही रखते हैं।

नव औपनिवेशिक शक्तियों की विशेषता होती है कि वे सबसे पहले किसी देश की राजनीति को अपने हितों के अनुरूप ढालते हैं। यह सबसे आवश्यक तत्व है। नतीजा में…ऐसे नेता अधिक शक्तिशाली होते हैं जिनकी पीठ पर उन शक्तियों का हाथ होता है। हर नेता की अपनी एक्सपायरी डेट भी होती है जो अपने अप्रत्यक्ष आकाओं के हित पोषण की उसकी क्षमता पर निर्भर करती है।

लॉक डाउन के दौरान बिहार-यूपी के प्रवासी श्रमिक समुदायों के प्रति शासन-प्रशासन के संवेदन हीन रवैये और इन श्रमिकों की फजीहतों का विश्लेषण करें तो नव उपनिवेशवाद की इस परत को समझना आसान हो सकता है।

अपने देश के खनिज संसाधनों को कुछ खास कारपोरेट घरानों के हाथों में एक-एक कर सिमटते जाने को विश्लेषित करें तो हम नव उपनिवेश वाद की एक अन्य परत को समझने की कोशिश कर सकते हैं।

इन खनिज संसाधनों की कारपोरेट लूट के विरोध में स्थानीय समुदायों का उठ खड़ा होना और शासन-प्रशासन द्वारा उन समुदायों के अमानवीय दमन का हम विश्लेषण करते हैं तो नव उपनिवेशवादी शक्तियों का दमन चक्र किसी भी सूरत में अतीत की उपनिवेशवादी शक्तियों के दमन चक्र से कम क्रूर नहीं लगता।

खबर है कि बिहार के श्रमिकों को घर वापस लौटने से गुजरात, कर्नाटक और तेलंगाना आदि राज्यों में जबर्दस्ती रोका जा रहा है, उनकी वापसी के लिये निर्धारित ट्रेनें रद्द की जा रही हैं। इसके लिये, उन्हें प्रलोभन दिए जा रहे हैं…तो… न मानने पर उनकी भरपूर मार-कुटाई भी की जा रही है।

अभी खबरों में देखा…बिहार के खगड़िया रेलवे स्टेशन से कल रात ही एक ट्रेन खुली है जो श्रमिकों को बैरंग वापस ले जा रही है तेलंगाना के लिये।

ये बिहारी श्रमिक जीते जागते उपनिवेश हैं। इनका खुद पर भी अख्तियार नहीं। न इन्हें अहसास ही है कि ये किसकी गुलामी कर रहे हैं और इनके क्या अधिकार हैं जिनका हनन खुलेआम हो रहा है।

जिन्हें इस गुलामी का अहसास हो रहा है और जो इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें उतनी ही मार पड़ रही है। जैसे, कारपोरेट घरानों द्वारा हथियाये जा रहे खनिज संसाधनों के विरोध में उतरने वालों का क्रूर दमन किया जा रहा है।

वे खनिज सम्पन्न इलाके उन शक्तिशाली घरानों के उपनिवेश ही तो हैं। राजनीतिक सत्ता ने इन घरानों के हित पोषण हेतु तमाम कुचक्र रचे हैं क्योंकि ये मूलतः और अंततः उन्हीं घरानों के लिये हैं।

हमारे देश में नव उपनिवेशवाद की अनेक परतें हैं। जिन्हें समझना जटिल है, लेकिन, कोशिश करें तो बातें समझ में आने लगती हैं। थोड़ा और कोशिश करें तो राजनीतिक सत्ता का इन नव औपनिवेशिक शक्तियों से संबंध भी समझ में आने लगता है।

जरूरत है…अधिक से अधिक लोग इसे समझें। खुद की अपने बच्चों की बेहतरी के लिये यह सब समझना जरूरी है।
कोविड-19 संकट ने नव औपनिवेशिक सत्ता के चरित्र को एक बार फिर से पूरी तरह एक्सपोज कर दिया है और इसे समझने के लिये हमें अवसर दिया है।

-Hemant Kumar Jha

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