लॉकडाउन: अस्पतालों से जुड़ी तीन सच्ची घटनायें, जो सोचने पर मजबूर कर देगी !

सीन-एक

समय रात दो बजे
स्थान शहर का एक प्रतिष्ठित निजी अस्पताल
“जल्दी उतरो, अरे जल्दी करो”
“हेलो, कोई है?”
“गेट खोलो”
“इमर्जन्सी है”
“हार्ट पेशंट है”
(वार्ड बोय जल्दी जल्दी स्ट्रेचर लेके आता है, गाड़ी का फाटक खोलते ही जैसे ही उसकी निगाह मरीज़ की दाढ़ी और कुर्ते पर पड़ती है)
रुको रुको
मत उतारो। यहाँ नहीं लेंगे।
अरे क्यों, सीरीयस पेशंट है प्लीज़।
अरे बोला ना नहीं लेंगे, मुसलमानों को अटेंड करने से मना किया हुआ है।
(बदहवासी में मरीज़ के परिजन इसे दूसरे अस्पताल की और ले जाते हैं)
(इसी प्रकार का बर्ताव दूसरे अस्पताल में होता है और इस दौरान मरीज़ की मौत हो जाती है।)

सीन दो-

अरे बहु को दर्द शुरू हो गया, पहला बच्चा ऑपरेशन से हुआ था, दूसरा भी ऑपरेशन ही कराना पड़ेगा।
“हाँ, माँ लेकिन क्या करूँ उस डॉक्टर ने मना कर दिया”
“अरे दूसरे को फ़ोन कर”
(अपने दोस्त को फ़ोन करके कुछ जुगाड़ करने को बोलता है)
(दोस्त जो मेडिकल फ़ील्ड में है अपने सम्पर्कों से फ़ोन करता है)
“हेल्लो”
“हाँ भाई एक सीजेरीयन पेशंट है”
“अरे भेज ना भई फ़ोन करने की क्या ज़रूरत है।”
“हाँ भेजता हूँ”
(पेशंट को लेके पहुँचते हैं वहाँ स्टाफ़ ने देखा बुर्के वाली औरतें साथ में हैं।)
“अरे बाहर चलो बाहर”
“अरे भाई हम फ़ोन करके आए हैं”
“हाँ आए होंगे, अभी डॉक्टर मैडम नहीं है”
“ऐसे कैसे नहीं है, हमने फ़ोन किया था”
“हाँ बोला ना नहीं है, दूसरी जगह ले जाओ।

सीन-3

(एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार का घर)
(दो वर्षों से मुखिया का कैन्सर का इलाज चल रहा है। बड़े शहर के निजी अस्पताल के पास रूटीन थैरेपी करवाते हैं जिसमें लाखों रुपयों का खर्चा हो चुका है।)

“दो दिन बाद इनके इलाज की तारीख़ है”

“हाँ माँ, मैं डॉक्टर को फ़ोन करके अपोईंटमेंट ले लेता हूँ।”
“हेल्लो डॉक्टर, मैं फ़लाँ पेशंट का लड़का बोल रहा हूँ, उनकी थैरेपी के लिए परसों कितने बजे आयें?”
“नहीं अभी मत आओ।”
“लेकिन डॉक्टर साहब उनकी तबियत थोड़ी खराब हो रही है।”
“सब नोर्मल है, कुछ नहीं होगा, मैं फ़ोन करूँगा तब आना।”

(डॉक्टर के बुलाने का इंतज़ार होता रहा, पंद्रह दिन निकल गए। तबियत ज़्यादा ख़राब हुई तो बिना बुलाए लेके चले गए। जिस डॉक्टर ने इस मरीज़ से लाखों रुपए कमा लिए थे उसी ने देखने से मना कर दिया। अगले दिन मरीज़ का इंतकाल हो जाता है।)

ऊपर जो तीन कहानियाँ… नहीं कहानियाँ नहीं बोलेंगे इनको।

ऊपर जो तीन घटनायें मैंने लिखी हैं ये नब्बे फ़ीसदी हक़ीक़त से प्रेरित हैं।

इतनी ज़िल्लत और बेक़द्री तो शायद दलितों की भी नहीं हुई होगी जो आज मुसलमानों की हो रही है।

ऐसे वक्त में जब पूरे देश में डॉक्टरों के जज़्बे को सलाम ठोका जा रहा है, कुछ करुणाहीन चिकित्सकों ने इस देविय पेशे को शर्मसार करते हुए हिप्पोक्रेटिक शपथ को भी कलंकित किया है।

जिन निजी अस्पतालों में काले छातों की तरह मुस्लिम महिलाओं की भीड़ रहती है, जिनके ऐशो आराम का सारा पैसा ख़लीज़ में बहाए पसीने से बन रहा है उन्होंने जरूरत के समय कितना गहरा छूरा मारा है।

लेकिन हमारी ग़ैरत को पता नहीं क्या हो गया है, कुछ दिन बाद सब नॉर्मल हो जाएगा (थोड़ा थोड़ा तो हो भी गया है)और वापस मेहनत की कमाई को इनके कुँवेनुमा खातों में जमा कराने लग जाएँगे।

जब सरकार ने इतने अच्छी सुविधाओं वाले सरकारी अस्पताल बना रखे हैं, ट्रस्ट के हॉस्पिटल होते हैं, इन सब में लालची भेड़ियों की बजाय ज़्यादा क़ाबिल लोग बैठे हैं। तो हम क्यों इनका फ़ायदा नहीं उठाते?

क्यों थोड़ी सी परेशानी से बचने के लिए या इज्जत(जो औरों की नज़रों में है भी नहीं) शो करने के लिए इन निजी दानवों का पेट भरते रहते हैं।

क्या इसी दिन के लिए कि मौक़ा पड़ने पर ये सबसे पहले हम ही से ग़द्दारी करें।

वजह चाहे झूठा मीडिया ट्रायल हो या इनके दिलों में गहरा बैठा इस्लामोफोब हो, उनका ईमान वो जानें। लेकिन हमें कौन रोक रहा है आत्म निर्भर बनने से?

क्या अल्लाह ने हमें समझ और इज्जत नहीं दी, क्यों हम उनका इस्तेमाल नहीं कर रहे?

इतना बड़ा धोखा खाने के बाद भी अगर हम अत्यावश्यकता के बिना इनके पास जायें तो बेशक हम ज़िल्लत के ही लायक़ हैं।

-रिज़वान

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