कुछ पल इरफान के साथ, बनारस से मुम्बई तक
दिसम्बर 2014 की एक सुबह एक अनजाने नम्बर की कॉल से नींद खुली और फोन करने वाले ने कहा कि इरफान बोल रहा हूँ। लग रहा है कि सो रहे है,कब तक जगेगें,मुलाकात कैसे होगी।
जब तक समझता कि कौन साहब है फिर आवाज़ आयी इरफान खान मुम्बई से आपके शहर में, फ़िल्म निर्माण के सिलसिले में बनारस आया हूँ पर मुलाकात तो लाजिमी है।
अब होशोहवास दुरुस्त थे और मैंने तपाक से कहा कि अरे वाह मजा आ गया सुबह सुबह। तय हुआ कि कल सुबह जल्दी मिलेंगे।
तयशुदा वक़्त पर मुलाकात हुई और बातों का सिलसिला हिंदुस्तानी तहज़ीब खास कर बनारस की मिली जुली संस्कृति से चलते चलाते खानपान की चर्चा पर आ ठहरा।
इरफान ने पूछा क्या राजस्थानी स्वाद का कुछ मिल सकता है जो सहज उपलब्ध हो।
मैंने बनारस की कचौड़ी और जलेबा(बनारस की स्पेशल) की तारीफ की तो एकाएक फरमाया की जब इतनी तारीफ कर रहे है तो चलिए डॉक्टर साहब खा ही लिया जाए, देखते है आपकी बातों में कितना दम है।
बिना किसी झिझक हम चल दिये। साधारण कद काठी के इरफान में गुरुर कतई नही था लपक कर एक रिक्शा रोका और हम आ गए मारवाड़ी अस्पताल के सामने (मैं अक्सर इसी दुकान पर कचौड़ी जलेबा छका करता हूँ) सड़क पर सजी हुई कचौड़ी और जलेबी की दुकान पर ।
हींग की खुशबू का एहसास हुआ और इरफान के चेहरे पर मुस्कुराहट का आगाज़, एक दो तीन ….और छः गरमागरम फिर जलेबा का आनंद।
सब्जी के स्वाद ने तो ऐसा रंग दिखाया कि बार बार दुकानदार की घूरती आंखों के बावजूद इरफान दोना आगे बढाते रहे उनकी आंखों में ऐसा जादू था कि वह निःशब्द दोना में सब्जी डालता रहा।
तृप्ति का भाव चेहरे से टपकने लगा और चाय की तलब लिए हम गोदौलिया ताँगा स्टैंड की ओर बढ़ गए।
अजीब शख्स था वो न कोई अकड़ न कोई बनावट और न स्टारडम,मजेदार बात ये की हम यूँ ही खाते,पीते घूमते रहे किसी ने नोटिस तक नही लिया जैसे कोई इंसानी किरदार अपनो के बीच जाकर उनके वजूद का हिस्सा हो गया हो।
वक़्त तेजी से भाग रहा था इरफान ने कहा कि रोजी रोटी कमाने का समय हो गया वापस चलते है। कला भवन और वेधशाला देखने की हसरत लिए हम वापस हो लिए।
दूसरी मुलाकात 2016 में मुम्बई में बरसात की एक शाम हुई जो आखिरी मुलाकात बन कर रह गयी।
मेरा मुम्बई अक्सर आना जाना रहता है।कई बार फिल्मी हस्तियों से रूबरू होता रहता हूँ।
इरफान को उनके घर पर दस्तक दिया और कॉफ़ी के घूंट के साथ गांधी हमारी चर्चा के सेंटर पॉइंट बनते चले गए।
वजह बनी प्रो राम पुनियानी द्वारा लिखित और सेंटर फॉर हार्मोनी द्वारा प्रकाशित “गांधी कथा” नामक पुस्तिका जिसे हमनें इरफ़ान को भेंट की।
इरफान ने बताया कि उन्होंने गांधी की आत्मकथा के साथ साथ रोमांरोलां और लुई फिशर को भी पढ़ा है।
सहसा मुझे यकीन नही आया कि इतने जद्दोजहद और बाद में मसरूफियत के बावजूद गांधी को जानने समझने की ख्वाहिश इरफान में बाकी थी।
इरफान ने बरजस्ता कहा कि डॉक्टर साहब हमने गांधी को भुला दिया। हमारे पालिसी मेकर ने गांधी दर्शन को न तो महत्व दिया और न ही आने वाली पीढ़ियों को गांधी से रूबरू कराया।
काश हम गांधी के रस्ते पर चले होते तो आज आपको दंगों पर फैक्ट फाइंडिंग न करनी होती न किसी की हक़तल्फी होती और न अमीर-गरीब के बीच की खाई इतनी चौड़ी होती।
फिर एक सवाल दागा की ये बताइये की गांधी को गांव की बड़ी फ़िक़्र रहा करती थी आज गांव में गांधी का कितना वजूद बाकी है?
इस सवाल पर मैं असहज हो गया और बात को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश करने लगा।
आप ही बताएं कि क्या ये कह देता की आज गांव गांधी से खाली हो गए है। विकास की नई इबारत गढ़ ली गयी है और गांव उसकी नई प्रयोगशाला बन गए हैं।
साझी तहज़ीब जिसके लिए हिंदुस्तान जाना जाता था उस पर सवालिया निशान लग रहे है। पर मेरी आवाज को जैसे लकवा मार गया हो।
अंत में इस समझ को लेकर कि हमें गांधी की ओर लौटना होगा हमने इरफान से जल्द मिलने के वादे के साथ विदा लिया।
मुझे क्या पता था कि ये अंतिम विदाई साबित होगी।
तुम्हारे आखिरी अल्फ़ाज़ “मैं हूँ भी और नही भी”। ऐ दोस्त तुम्हारा वजूद हमारे दिलोदिमाग और हिंदुस्तानी रवायत में हमेशा कायम रहेगा। तुम्हारा नाम तारीख में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज रहेगा।
“रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई,
तुम जैसे गए वैसे तो जाता नहीं कोई”।
अलविदा मेरे दोस्त
तुम बहुत याद आओगे गांधी के इस देश को
– डॉ. मोहम्मद आरिफ
(लेखक इरफ़ान खान के क़रीबी दोस्त और BHU में इतिहास की फैकल्टी रहे हैं)