चूहे नहीं इंसान थे मेघालय के खदान मज़दूर, फिर थाईलैंड की तरह क्यों न तड़पी सरकार?

चूहे नहीं इंसान थे मेघालय के खदान मज़दूर, फिर थाईलैंड की तरह क्यों न तड़पी सरकार और मीडिया ?

धीरेश सैनी (वरिष्ठ पत्रकार)

मेघालय की अवैध कोयला खान में फंसे मज़दूर (जिनका अब यह भी नहीं पता कि वे जीवित हैं भी या नहीं), क्या इसी दुनिया के नागरिक हैं? क्या उनका कोई देश है? क्या किसी भारत या किसी विश्व का दिल उनके लिए धड़कता है? ये 13 से 15 मज़दूर ईस्ट जयंतिया हिल्स के क्सान (Ksan) गाँव के इलाक़े की एक कोयला खदान में 13 दिसम्बर को फँसकर रह गए। ये खदान रैट होल (rat hole) कहलाती हैं। अवैध रूप से नीचे-नीचे छेद करके बेबस मज़दूरों की जान जोखिम में डालकर किया जाने वाला खनन। जैसे चूहे बनाते हैं छेद। नदी के पास की इस खदान में अचानक पानी भर जाने से ये मज़दूर फँस गए। मज़दूर फँस गए तो क्या? नेशनल मीडिया, खासकर कथित राष्ट्रीय भाषा की कथित मुख्यधारा के मीडिया तक यह बात पहुंचने में 10-12 दिन लगे। एक मामूली ख़बर की तरह। यह बताने में कि संसाधनों के अभाव में बचाव अभियान रोक दिया गया है।

आप किस बात के विश्वगुरु होने का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं? इतने लोग मौत के मुंह मे धकेल दिए गए और फिर उन्हें बचा पाने की कोशिशों से हाथ खड़े कर दिए गए। थाइलैंड की गुफा में फंसे बच्चों और उनके अध्यापक के लिए चलाया गया सफल बचाव अभियान क्या ‘विश्वगुरू’ को याद है? लेकिन, यहां तो सारे बचाव अभियान साम्प्रदायिक अपराधियों को कानून से बचाए रखने के लिए चलाए जाते हैं। मज़दूरों के लिए कौन बोले, कौन करे, संसाधन कहाँ से आएं?

हालांकि, यह सवाल मज़दूरों की ज़िंदगी के बाद ही आता है और उनकी ज़िंदगी को खतरे में डालने वालों से जुड़ा है कि ये खनन माफिया कौन है और अब इस भयंकर ‘हादसे’ के बाद कितनी गिरफ्तारियां हुई हैं। बात-बात में हवन और प्रार्थना करने वाले कहाँ हैं? इस जनता ने सड़कों पर आकर खनन में फंसे मनुष्यों के लिए दबाव क्यों नहीं बनाया? मेघालय में क्रिसमस कितना मैरी रहा? क्या वहां के लोग अपने राज्य में इतने लोगों के फँसे होने को लेकर चिंतित होकर सड़कों पर आए?

क्या देश के लोगों की सेंसिबिलिटी भी पॉवर स्ट्रक्चर को संचालित करने वाली ताक़तें ही निर्मित-संचालित करती हैं?

वरिष्ठ पत्रकार धीरेश सैन

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