‘पप्पू की पप्पी’ आखिर ये कौन सी भाषा है भाजपा नेताओं की!

चुनावी समर के शंखनाद के साथ ही चुनावी भाषणों के दौरान अमर्यादित होती भाषा शैली एक गंभीर चिंता का विषय है। अपने विरोधियों पर निशाना साधते समय मिमिक्री करना और तंज कसते हुए अभद्र भाषा का प्रयोग करना एक फैशन बनता जा रहा है। ऐसे नेता खुद को सबसे बड़ा वक्ता और भाषण वीर समझते हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन नेताओं के बोल बिगड़े हुए हैं या जिनकी भाषा वैमनस्यता से भरे होते हैं, उन्हें उदयीमान मानकर, स्टार प्रचारक बनाया जाता है। इससे लगभग कोई भी दल अछूता नहीं है। निश्चय ही इसके लिए चुनाव आयोग को गंभीरता से कठोर कदम उठाने चाहिए और आमजनों को ऐसे नेताओं का बहिष्कार करना चाहिए जिनके भाषणों में अमर्यादा , वैमनस्यता, कटुता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली कुसंस्कारी भाषा का प्रयोग होता हो.

एक राष्ट्रीय स्तर के नेता देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भीड़ भरी सभा में “चौकीदार चोर है” कहता है तो सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के नेता अपने प्रमुख विपक्षी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को पप्पू कहकर संबोधित करते है। हद तो तब हो गई जब केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा ने कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी के बारे में ताजा बयान हुए कहा कि “अब पप्पू की पप्पी भी आ गई”

आखिर ये कौन सी भाषा है? यह तो सिर्फ एक बानगी भर है। कई ऐसे नेता और प्रवक्ता हैं जो अपने विवादस्पद बयानों, से हमेशा सुर्खियों में रहते हैं।वैसे कोई भी पार्टी अपने नेताओं के बिगड़े बोल पर कम ही संज्ञान लेती है या उनके निजी बयान बताकर कन्नी काट लेती है। विडंबना है कि लाईव टीवी डिबेट में व्यक्तिगत आक्षेप से लेकर गालीगलौज तक पर उतारू होते प्रवक्ताओं को उनकी पार्टी संस्कार क्यों नहीं सिखाती?

लोकतंत्र में ऐसे राजनीतिज्ञों से क्या उम्मीद की जा सकती है। निश्चय ही जब कोई नेता भाषण देता है तो जनता को अपने विश्वास में बांधने का पूरा प्रयास करता है वहीं जनता उनके वचन में ईमानदारी और प्रतिबद्धता की झलक देखना चाहती है। आमजनों की आकांक्षा रहती है कि जनता से किए गए वादों और दावों में पारदर्शिता हो। जनता के सवालों पर सीधा और सटीक जवाब दे परंतु नेताओं के द्वारा नित नए जुमले गढ़ कर आमजनों को छलने का कुत्सित प्रयास किया जाता है। यदि राजनीतिक दल अपने फायर ब्रांड नेताओं की नकेल न कस सकें तो चुनाव आयोग को अपनी तरफ से पहल करनी चाहिए । ऐसी पार्टियों पर भी नकेल कसने की जरूरत है जो अपने घोषणा पत्रों के मुताबिक जनहित के कार्य न करें और गरमागरम बहसों में लोगों को उलझाए रखे।

-मंजर आलम, बिहार

(एम०ए०, बी०एड०, नालंदा खुला विश्वविद्यालय पटना, बिहार)

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