स्त्री सशक्तिकरण की असफ़ल कहानी – ‘वीरे दी वेडिंग’ फिल्म समीक्षा

तेजस पूनिया

फिल्म समीक्षा

फिल्म – वीरे दी वेडिंग

बैनर- अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, बालाजी टेलीफिल्म्स लि.

निर्माता – रिया कपूर, एकता कपूर, शोभा कपूर, अनिल कपूर,निखिल द्विवेदी

निर्देशक – शशांक घोष

संगीत – शाश्वत सचदेव, विशाल मिश्रा

कलाकार -करीना कपूर खान, सोनम कपूर आहूजा, स्वरा भास्कर,शिखा तलसानिया, सुमित व्यास, नीना गुप्ता, विवेक मुश्रान, मनोज पाहवा, एडवर्ड सॉनेनब्लिक

महिलाओं की स्वतंत्रा तथा स्त्री सशक्तिकरण को केंद्र बनाकर लिखी गई कहानी और उस पर बनाई गई फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ हर मोड़ पर एक असफ़ल कहानी कहती है । स्त्री सशक्तिकरण का उद्देश्य स्वछन्द होना कदापि नहीं है । जबकि इस फिल्म में स्वच्छन्दता ही मुखर रूप से है । उस पर से इसके संवाद । हालांकि तथाकथित स्त्री समीक्षक एवं स्त्री अधिकारों के पैरोकार एवं बुद्धिजीवी लोग इस फिल्म को बेहतर करार दे सकते हैं परन्तु भारतीय सिनेमा में हाल-फिलहाल में ही इतना सब कुछ स्त्री आधारित बताया और दिखाया जा चुका है कि उस सबमें यह फ़िल्म एक कदम पीछे ही है । पर एक बात का जिक्र जरूर होना चाहिए, वाईब्रेटर और औरतों के हस्तमैथुन का । इतने साफ तौर पर इसका जिक्र हिंदी फिल्म में शायद पहली बार हुआ है । लेकिन क्या ये वाकई अहम है ? फिल्म के सन्दर्भ में मुझे ऐसा कतई नहीं लगता । इससे ज्यादा अहम और उल्लेखनीय बात ये है कि ये दृश्य सेंसर बोर्ड की कैंची से बच गया, जो पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीयता, नैतिकता और सामाजिक मूल्यों के नाम पर कुछ बेहद सामान्य शब्दों और दृश्यों को काटने के लिए बदनाम हो चुका है ।

खैर फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि फिल्म में चार सहेलियाँ हैं – कालिंदी (करीना कपूर) जिन्हें यूं तो शादी में यकीन नहीं है, पर अपने प्रेमी ऋषभ (सुमित व्यास) की खातिर शादी करने को राजी हो जाती हैं । दूसरी है अवनी (सोनम कपूर आहूजा) जो पेशे से वकील हैं और खुद हथियार डालने के बाद अब मां की पसंद के लड़के देख रही हैं । तीसरी साक्षी यानी (स्वरा भास्कर) जिनका तलाक होने वाला है और जो अपने मोहल्ले की आंटियों की चुगलियों से परेशान आ चुकी हैं और चौथी सहेली है मीरा यानी (शिखा तल्सानिया) जिनके फिरंगी पति (एडवर्ड सॉनेनब्लिक) को उनके सिख परिवार ने अब तक स्वीकार नहीं किया है । मीरा का दो साल का एक बेटा भी है । चारों की मुलाकात होती है कालिंदी की शादी के मौके पर। फिर सब कुछ आपकी अपेक्षाओं के अनुरूप स्वत ही घटता चला जाता है । जैसे कि शादी के दौरान इनकी जिंदगियों की कुछ उलझी हुई गांठें सामने आती हैं और फिल्म खत्म होते-होते सुलझ जाती हैं। फिल्म फार्महाउस में होने वाली शादियों और करोड़ों की डेस्टिनेशन वेडिंग्स आदि पर भी तंज कसती है । ‘इटैलियन खाना खिलाएंगे, भले ही बाद में खुद जेल का खाना-खाना पड़े!’ जैसे संवाद इसमें खास भूमिका निभाते हैं ।

फिल्म में एक दूसरा पहलू है ‘सिगरेट पीना सेहत और चरित्र- दोनों के लिए हानिकारक है!’ यह बात सिर्फ इस फिल्म का एक किरदार दूसरे किरदार से ही नहीं कहता अपितु पूरी फिल्म ही दर्शकों से कहती है। चरित्र मापने के मानदंड जैसे कि  ‘सिगरेट’, ’शराब’, ‘छोटे कपड़े’, ‘पार्टी करने की आदत’,‘बातचीत में गालियों का इस्तेमाल’जैसे चर्चित पैमानों को कठघरे में खड़ा करती है। फिल्म के किरदार अपनी शर्तों पर जीने वाले हैं । फिल्म वीरे दी वेडिंग एक पंजाबी शीर्षक है जिस पर अगर बात करें तो ‘वीरे’ पंजाबी भाषा का शब्द है,जिसका मतलब होता है ‘ब्रो’, यानी भाई । यानी यह फ़िल्म आज की लाइफ स्टाइल और ब्रो-श्रो टाइप भी है ।

फिल्म में एक्टिंग की बात करें तो इस  मामले में स्वरा भास्कर और शिखा तल्सानिया, की अदाकारी औसत दिखाई देती है । कहीं कहीं बेहतर होता भी है तो उसका कारण उनके लिए चटपटे संवादों का होना भी है, जो उनके हिस्से में आए । सोनम अपने किरदार के साथ स्वाभाविक नजर आती है । इसके अलावा करीना कपूर खान की बात करें तो उनका रोल फिल्म में सबसे बड़ा है परन्तु अपनी भूमिका में वह पूरी तरह फिट तो नहीं लगी हैं और कहीं-कहीं ओवरएक्टिंग की शिकार भी नजर आई हैं । सुमित व्यास ने फिल्म में अच्छा काम किया है, हालांकि उनका रोल और दमदार हो सकता था । आयशा रजा, विवेक मुशरान, मनोज पाहवा आदि सहयोगी कलाकार कहानी को आगे बढ़ाते नजर आते हैं ।

फिल्म में सबसे बड़ी कमी उसकी कहानी है, जो इसे ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ और ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्मों की फेहरिस्त में खड़ा करती है । इसे देखते हुए इन फिल्मों की यादें ताजा होती हैं,इसमें भावुक कर देने वाले भी कुछ पल हैं । पर सही दिशा के अभाव में यह मनोरंजन के तमाम मसालों से लैस होते हुए भी दर्शक के मन में ‘कुछ कमी रह गई’ वाला भाव सौंपते हैं । फिल्म में गालियों की भी भरमार है पर एक ‘ए सर्टिफिकेट’ फिल्म के लिहाज से इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है ।

फिल्म के गाने सुनने से ज्यादा देखने में अच्छे लगते हैं । किन्तु‘तारीफां’ गीत हो या ‘भंगड़ा ता सजदा’ या फिल्म का टाइटल गीत कोई भी सिनेमा हॉल से बाहर आने पर याद नहीं रहता ।

यही कारण है कि शशांक घोष के निर्देशन में बनी फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ के किरदार कमजोर लगते हैं और संवाद भी प्रभावहीन हैं । आधे से ज्यादा संवाद अंग्रेजी में हैं और बाकी आधे गालियों से भरे हैं । फिल्म की कहानी भी कमजोर है ।

(तेजस पूनिया के ब्लॉग प्यासा से साभार)

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