भीतर का रेगिस्तान-(कविता)

दर्द का यह अंतहीन सिलसिला हर-रोज सिर्फ़ जगह बदलता है और करतूतें वही, मन के भीतर का रेगिस्तान राक्षसमय बंजर हो चुका है जिसको उपजाऊ बनाने के लिए बरसों लग जाएंगे ….
एक सभ्य समाज मे यह कदापि बर्दाश्त नही है !!!

भीतर का रेगिस्तान …

मन के भीतर के रेगिस्तान में
राक्षस होने के प्रमाण मिलने लगे है
यहाँ की झाड़ियों से आज भी
बड़ी डरावनी आवाजे सुनाई देती है
मैं यह क्यों सोचूं कि यहाँ की ठंडी राते
हवस-हवस नही चिल्लाती क्योंकि,
यहां दरिंदगी के प्यासे लोग रहा करते हैं,

कुछ कहना मंजूर नही है मुझे
भीतर के रेगिस्तान के लिए क्योंकि रेगिस्तान में
हैवानियत की धूल उड़ती दिखाई दे रही है
पानी के प्यासे लोग,लहूँ बहा जाते है
नौंच कर हुस्न को इस कदर,
फाँसी दो फाँसी-दो चिल्लाते है
मैं नही रहना चाहता उस भीतर के रेगिस्तान में
जहाँ मेरी इंसानियत दम घोंटती है,
बरसों से की थी आदमियत की खेती
फिर क्यों यहाँ उग जाती है
हैवानियत की खेती है,

यह जो मन के रेगिस्तान में
नारी गरिमा की परियोजनाएं विफ़ल होती दिखती हैं
उन बेटियों की चिल्लाहटो में आज भी
माँ की कहराहट सुनाई देती हैं।
भीतर के रेगिस्तान में कहीं खो गई है अस्मिता और मानवता
जिससे ढूंढने में हजारों बरस लग जाएंगे !!

रचनाकार परिचय

– शौकत अली खान ,युवा साहित्यकार
सामाजिक मुद्दों पर विशेष लेखन
वर्तमान में राज. विश्वविद्यालय में अध्ययनरत

(फेसबुक वॉल से साभार)

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