कभी फूहड़ हँसी सुनकर समझदारी रोती थी, आज नकली रोना देखकर संवेदना हँस रही है !


व्यंग्य- संवेदना हँस रही है

माननीय के चेहरे की सलवटें साधु की जटाओं सी कुछ ज्यादा ही उलझी नजर आ रही थी। उन्हें सुलझाने या छेड़ने की चाह में हमनें उनके प्रिय उदघोष के साथ अभिवादन किया-

” माननीय, जय श्री राम..!”

“जयय. श्री राम..”

‘जय श्री राम’ में अतिरिक्त य जुड़ने से उनका चिरपरिचित जोश गायब दिखा। इतना ठंडा स्वर सुनकर सुबहा होने लगा क्या वे सचमुच राम नाम का अर्थ जान गए है या फिर किसी नए मिशन की तैयारी में पिछला भूल चुके हैं। जानकारी को दुरस्त करने के लिए हमनें दूसरा चलताऊ सवाल उनकी ओर बिना बात धकेल दिया-

” तबियत कुछ नर्म लग रही है..? सब ठीक ठाक तो है ना..?”

“क्या खाक ठीक है..। बेशर्मी की हद है..। हँस रहे हैं ससुरे.। ”

जबाब सुनकर हम समझ गए कि सवाल ने तुरन्त उसी तरह असर किया है जैसे बुखार में पैरासिटामोल करती है। फर्क सिर्फ इतना था वहाँ टेम्परेचर कम होता है यहाँ अपने मूल रुप में आ गया था।

“क्या हुआ..? इतने गुस्से में क्यों हो..? कौन हँस रहा है..?”

जबाब के जबाब में हमारा सवाल वैसी ही सहानुभूति दिखा रहा था जैसे चित्त पड़े पहलवान को दुबारा से दंगल में उतरवाने के लिए उसकी हार याद दिलवा रहा हो।
माननीय भी अब फोम में आ चुके थे-

“आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे कुछ पता ही नहीं..। देखा नहीं आपने ..! लोग रोने की हँसी उड़ा रहे हैं..। आँसुओं का मजाक रहे बना रहे हैं..। दुनिया को अपनी बेहयाई दिखा रहे है.। सोशल मीडिया पर मगरमच्छ के साथ तुलना कर रहे हैं…। आँसुयों की ऐसी बेकदरी..! हँसी का इतना पतन..!”

“ओ ..तो आप उन आँसुओं की बात कर रहे हैं..।”

बात समझते ही मेरे मुँह से खुद ब खुद यह वाक्य ऐसे निकल गया जैसे साफ सड़क देखकर पान का पीक दबे होठों के बीच से अपने आप बाहर छितर जाता है।
वे आँसू-विमर्श पर बिना पानी वाले आँसुयों की बरसात जारी रखे हुए थे-

” जी, हाँ! मैं उन्हीं आँसुओं की बात कर रहा हूँ। जो किसी ऐरे गैर के आँसू नहीं थे..। देश के प्रधान के आँसू थे..। देश के आँसू थे..। देशप्रेम के आँसू थे..। देश के आँसू, देश के लिए आँसू और देश उन पर हँस रहा है। आँसुओं को अभिनय, अवसर , आंनद, आदत, बता रहा है..। धिक्कार है ऐसे देश को और देशवासियों को..।”

माननीय, पहली बार देश और देशवाशियो को, दूसरा मानकर, धिक्कार रहे थे। आँसू- आख्यान में उनकी देश भक्ति उसी तरह ढह गई थी जैसे आँसुओं की बाढ़ में जीवन की ख़ुशियाँ बह जाती हैं।
माननीय की भावनाओं का सम्मान करते हुए हमनें भी अपना आँसू- आख्यान पेलना शुरू कर दिया-

” अजी छोड़ो..! यह सब तो चलता रहता है। कुछ दिन पहले किसान आंदोलन के एक नेता ने भी आँसू बहाए थे। उसने पहले भी कईं मौकों पर ऐसे आँसू बहाए जाते रहे हैं। वैसे भी कैमरे के सामने वाले आँसू दिखाने के लिए होते हैं। इसीलिए उन्हें दिखावे के आँसू कहा जाता है। यूँ रोज करोड़ो लोग आँसू बहाते हैं। लाखों रुदन करते रहते हैं। हजारों बे मौत मर जाते हैं। बीमारी से, अव्यवस्था से, गरीबी से, नफरत, नीतियों से.. । उन्हें कोई नहीं दिखाता। उन्हें कोई नहीं देखता। उन आँसुओं की नुमाइश नहीं लगती। उनकी कोई हँसी नहीं उड़ाता। आँसू की सुचिता उसके एकान्त में है और हँसी सामूहिकता का उत्सव है..।”

आँसू की दार्शनिक व्याख्या सुनकर वे हमें नए अंदाज में घूरने लगे। समझ नहीं आ रहा था कि वे हमारी बात समझ कर सम्मोहित हैं या अपनी बात नहीं समझा पाने से नाराज..। जो भी हो, इस सबसे उनकी आँखों मे आँसू की जगह अंगारे से उग आए थे। अपनी आग लेकर वे हम पर ऐसे टूट पड़े ,लगा अब पूरा भस्म करके ही छोड़ेंगे–

” क्या बकवास करते हो..! इसके, उसके, किसके, आँसुयों की तुलना प्रधान के आँसू से कर रहे हो..। ये तो वो ही बात हो गई कि राजा के तहखानों में रहने वाले कीड़े सिंहासन के सर चढ़कर नाचना चाहते हो। तुम्हे बड़े आदमी के आँसू की कीमत नहीं जानते। उसके दिखावे या दिखने भर से कईं छोटी मोटी आपदाएं अपने आप दूर हो जाती हैं। ये आँसू आपदा के अवसर का निदान ढूंढ रहे थे और तुम जैसे लोग इसे आपदा में अवसर बता रहे थे। इतिहास तुम्हें माफ़ नहीं करेगा। कुछ और ना सही पद की गरिमा का तो ख्याल करो..। ”
माननीय ने अब आरोपो का सीधा मुँह मेरी तरफ मोड़ दिया था। इसका एक मतलब ये भी था कि वे मुझसे सीधे-सीधे जबाब चाह रहे थे। सीधे संवाद के तहत मैंने कहा-

“लेकिन ये आँसू हमेशा अपनी सुविधा के लिए ही क्यों निकलते हैं..? कभी अपनी प्रयोजित गरीबी के प्रदर्शन पर, कभी काश्मीर के समीकरण पर तो कभी पाषाण- मूर्तियों को रिझाने के लिए ..। पानी की आड़ में चेहरा छुपाने के लिए..।”

वे हमें अपलक खामोशी से देखने लगे जैसे हमारे भीतर का पानी नाप रहे हो। उनकी चुप्पी ने हमें हौसला दिया। हमनें भी सवालों की बौछार को तेज करते हुए बोलना जारी रखा-

” ये आँसू उस दिन नहीं निकले जब एक घोषणा के कारण हजारों लोग बैको की लाइन में खड़े-खड़े मर गए। ये आँसू उस दिन नहीं निकले जब कड़कड़ाती ठंड में बेघर लोग हिन्दू-मुस्लिम होने के कारण नारकीय पीड़ा के साथ स्वर्ग सिधार गए। ये आँसू उस दिन नहीं निकले जब आंदोलन करती आवाजें शवो में बदल गई। ये आँसू उस दिन भी निकले जब मौत के खुले तांडव के बीच जयकारों का शोर में कुर्सी की होड़ मची हुई थी। यह आँसू गंगा में तैरती लाशों को देखकर भी नहीं निकले। ये आँसू ठीक तब निकले जब गंगा का पानी लाशों की मिट्टी से मैला ही गया, जब जीवन का पानी सर से ऊपर चला गया..।”

कहते कहते हमारा गला सुख रहा था। मैंने माननीय की ओर गौर से देखा कि उनके चेहरे पर गुस्से की जगह मायूसी छा गई थी। या तो उनके तरकश में तर्कों के तीर खाली हो गए थे या फिर वे सचमुच सच के करीब से गुजरने पर आँसुयों का सच जान गए थे। वे बस इतना ही बोल पाए थे-

” आपसे बात करना बेकार है। आप बायस आदमी है। मौत और गंगा का रिश्ता ही नहीं जानते। एक ना एक दिन सबको मरना है। मरकर गंगा में ही जाना है। क्या दिक्कत है। जब कभी आपके रोने पर लोग हँसेंगे, तब आपको पता चलेगा..फिलहाल मैं तो चलता हूँ..।”। ”

वे उठकर चल दिये थे। पास में रेडियो के किसी एफ एम चैनल पर यह गाना बज रहा था-

“रोते रोते हँसना सीखो ..हँसते हँसते रोना..जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना।”

हम गाना सुनते सुनते सोच रहे तबे कि अजब-गजब समय है, कभी फूहड़ हँसी सुनकर समझदारी रोती थी आज नकली रोना देखकर संवेदना हँस रही हैं।

रास बिहारी गौड़ (कवि और लेखक)


 

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