भारतीय सामाजिक व्यवस्था का शोकगीत है अनुभव सिन्हा की फ़िल्म आर्टिकल -15


भारतीय समाज व्यवस्था का शोकगीत है आर्टिकल 15

हर गांव में एक तालाब है। सुअरों का तालाब। बहुत गहरा नहीं है। शायद घुटनों-घुटनों भी नहीं, लेकिन ‘हम लोग’ के लिए पार करना बहुत मुश्किल है। सुअरों का यह तालाब है तो शहर में भी, लेकिन लगता है जैसे शहर का तालाब सूख गया है और लगता है जैसे ‘हम लोग’, ‘वे लोग’, सब लोग पार जा-आ रहे हैं। लेकिन यह गलतफहमी है।

‘हम लोग’ के लिए शहर का तालाब पार करना लगभग असंभव है। यह पार किए जाने का भ्रमभर है। लगता है कि जैसे तालाब सूख गया है, लेकिन इसके ऊपर एक पपड़ी जमी हुई, जो अक्सर दरक जाती है। तालाब के उस पार ‘वे लोग’ रहते हैं। वे लोग, जिनको हर रोज तालाब में धंसना है।

वे लोग, जो भारत के संविधान की आंच से तालाब सुखा देना चाहते हैं। वे इस पार आते हैं, हम लोग से मिलते हैं, हम लोग से बातें करते हैं, आजकल हम लोग के साथ खाते-पीते भी हैं। वे लोग के लिए हम लोग अखबार में आर्टिकल लिखते हैं। फिल्में भी बनाते हैं।

हम लोग अखबार की नौकरी में 7 प्लस 2 प्लस आधे मिल जाएंगे, वे लोग आधे में भी नहीं मिलते। संविधान ने व्यवस्था न की होती, तो वे लोग सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद सरकारी नौकरियों में भी नहीं मिलते। जैसे तमाम फैक्टरियों में वे लोग टाई लगाने वाले क्लास में नहीं मिलते।

वे लोग हर जगह दिखते हैं, वे लोग की जगह कहीं नहीं दिखती। वे लोग की जगह हम लोग तय करते हैं। वे लोग हम लोग के लिए बेहद जरूरी हैं, इसीलिए हम लोग वे लोग एकसाथ हैं। सवाल है, क्या सच में हैं। क्या यह साथ होना संतुलन बनाए रखने की एक कोशिशभर नहीं है।

संतुलन, जिससे कि वे लोग हर उस जगह मौजूद रहें, जहां हम लोग को सड़ांध आती है। वे लोग हम लोग की टट्टी साफ करें, इसके लिए संतुलन जरूरी है। संतुलन, जिसकी बात अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल 15’ करती है।

जातिवाद पर इतने मुखर तरीके से बात करने वाली मैंने कोई और फिल्म नहीं देखी। एक फिल्म लेखक के तौर गौरव सोलंकी Gaurav Solanki की यह पहली फिल्म है। अब लग रहा है कि यहां से सिनेमा का एक नया फेज शुरू हो सकता है, जैसे अनुराग कश्यप से शुरू हुआ था।

जिन लोगों ने जातिवाद को करीब से देखा है, जिन्होंने गांव देखे हैं और जो हम लोग (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) से बाहर के हैं, उनके लिए यह फ़िल्म एक शोकगीत है। एक ऐसा शोकगीत, जो हम लोग महसूस करें तो शायद हम एक बेहतर समाज की तरफ कुछ कदम बढ़ जाएं।

दो तीन आपत्तियों को छोड़ दिया जाए तो फ़िल्म का हर फ्रेम बहुत ईमानदारी से बुना गया एक ऐसा सपना है, जो अंबेडकर ने देखा था, पेरियार ने, नेहरू ने और भगत सिंह ने देखा था। हालांकि जो आपत्तियां हैं, वे कम बड़ी आपत्तियां नहीं हैं। हमसे आगे का समाज इन पर सवाल उठाएगा।

शायद ये दिक्कतें इसलिए हों कि गौरव सोलंकी और अनुभव सिन्हा ने जातिवाद के दंश को महसूस तो किया है, लेकिन उसे भोगा नहीं है। अगर यह सिनेमा यही नज़र रखने वाले किसी दलित या पिछड़े मुसलमान ने बनाया होता तो दलितों द्वारा की गई हड़ताल को कभी न तुड़वाता।

अगर यह बात छोड़ भी दी जाए कि ब्राह्मणवाद के खिलाफ बात करने वाली इस फ़िल्म का हीरो ब्राह्मण ही है और एकमात्र खलनायक-सा दिखने वाला ब्राह्मण किरदार शास्त्री अंततः नायकत्व को प्राप्त हो जाता है, तब भी गटर में अंततः दलित ही उतरता है।

गटर में दलित को ही उतरना है तो ‘संतुलन’ के खिलाफ बात करने वाली यह फ़िल्म कहीं न कहीं संतुलन साधती नज़र आती है

इस मुल्क की सीमा में दलितों का, पिछड़ों का, आदिवासियों का यदि कोई ईश्वर हो सकता है, तो वह भारतीय संविधान है।  भारतीय समाज व्यवस्था में सिर्फ और सिर्फ सवर्णों, खासतौर पर ब्राह्मणों के लिए प्रिविलेज है। फ़िल्म की यह ध्वनि फ़िल्म को बड़ा और जरूरी बनाती है।

इस सिनेमा में कुछ प्रतीक बड़े कमाल के हैं। जैसे सुअरों का तालाब, दलितों की हड़ताल के बाद सड़कों पर बहती गंदगी पर खड़ी गाय और अपने सबसे मुश्किल वक़्त में फ़िल्म के नायक अयान रंजन का महात्मा गांधी की तस्वीर की तरफ देखना और कुर्सी घुमाकर अंबेडकर की तस्वीर की तरफ से बाहर निकल जाना।

भीम आर्मी को जिस तरह दिखाया गया है, वह दलित मूवमेंट के लिए बहुत सहायक हो सकता है। फ़िल्म में चंद्रशेखर रावण और रोहित बेमुला अपने नाम से कहीं नहीं हैं, लेकिन अपने एक्टिविज्म में वे मौजूद रहते हैं।

एक्टिंग की बात क्या करना, आयुष्मान खुराना कमाल के एक्टर हैं। कुमुद मिश्रा, मनोज पाहवा और नासर के अभिनय को तौलना बेमानी है। ये हमारे वक़्त के बड़े कलाकार हैं।

फ़िरोज़ ख़ान

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