किसान की बेटी के मन की बात “महिला किसानों को क्यों आज भी किसान में नहीं गिना जाता?”


करीब पंद्रह दिन से मैं देख रही हूँ कि मेरे कमरे के बिल्कुल सामने माँ (दादीजी) और दादाजी सुबह दिन निकलने के साथ खेत में काम करने लगते हैं जो कि शाम को सूरज ढलने के बाद तक वैसे ही, एक ही रफ्तार में लगे रहते हैं।

बीच में केवल खाने के लिए थोड़ा टाइम निकालते हैं। उसके अलावा एकधार लगे रहते हैं। कुछ ऐसे ही हालात घर के अन्य लोगों के हैं। पूरी फसल एक साथ पक गयी है तो सब लोग अलग-अलग कामों में लगे हैं।

ये लोग सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। वो भी साल के 365 दिन और उसी साल की कई रातें भी इन्हीं खेतों में काम करते हुए निकल जाती हैं।

शायद सभी किसानों की दास्तान ऐसी ही होगी। मैं अपने आसपास नजरें फैलाऊँ तो देखती हूँ कि सुबह उजाला होने से पहले ही लोग घर और पशुओं का काम निपटाने में लग जाते हैं या निपटा देते हैं और दिन निकलने के साथ खेत में लग जाते हैं।

फ़ोटो- रघुवीर दान

खासकर महिला किसानों की बात करूँ तो बड़े शहरों में बैठकर उनके हालात की कल्पना ही नहीं किये जा सकती।

खाना बनाने और बच्चों को संभालने से लेकर घर के अन्य काम और पशु भी उनके हिस्से में ही होते हैं। उसके अलावा खेत में पुरूष किसानों के बराबर या यों कहें उनसे ज्यादा ही वक्त और काम इनके हिस्से में होता है।

जब दोपहर में पुरूष खाने के बहाने थोड़ा आराम ले पाते हैं तो वो समय उनके बराबर काम करने वाली महिलाओं के लिए ज्यादा भागदौड़ भरा होता है। उसी समय में खाना बनाना, पशुओं को चारा-पानी देना और फिर से अन्य लोगों के साथ बराबर खेत में जाकर काम पर लगना होता है।

खैर पुरूष प्रधान समाज की जड़ें हर जगह जमी हुई हैं। इतना सब करने के बावजूद किसान शब्द के साथ पुरूष किसानों का चेहरा ही चित्रित होता है। महिला किसानों को आज भी किसान में नहीं गिना जाता है।

सोचने वाली बात ये है कि ये कड़ी मेहनत, दिन-रात निरंतर, जिंदगीभर चलने वाली मेहनत, इन्हीं खेतों में पैदा होकर इन्हीं खेतों में लोगों के सम्पूर्ण जीवन को समेट लेने वाली मेहनत के बदले में इन लोगों को देती क्या है?

अगर ठीक-ठाक फसल हो जाये तो ये फसल को उगाने से लेकर काटने तक का खर्च दे देती है।

कई बार तो वो भी नहीं मिल पाता जब फसल पकने के कगार पर हो और ओले गिर जायें या पकने के बाद बारिश हो जाये तो किसान की फसल का दाम आधा हो जाता है क्योंकि लोगों को एकदम फ़्रेश अनाज चाहिए। फेडेड कलर के गेँहू शायद लोगों के गले नहीं उतरते या व्यापारियों को रास नहीं आते।

इसके अलावा ये मेहनत अपना पारिश्रमिक भी नहीं जुटा पाती है। जबकि बाजार में जाते ही वही फसल इतना मुनाफा देने लगती है कि कोई किसान अगर खुद का ही खेत से बेचा हुआ अनाज बाजार से पुनः खरीदना चाहे तो उसको कई गुना ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी।

पापा जी बताते हैं कि नब्बे के दशक में एक साधारण सरकारी नौकरी (उदाहरण के लिए एक सरकारी स्कूल टीचर समझ लीजिए) करने वाले की एक साल की पगार से करीब 2-3 गुना दाम एक साधारण किसान एक साल में कमा लेता था।

और अभी हालात ये है कि उसी सरकारी कर्मचारी की एक महीने की तनख्वाह भी उसी किसान की एक साल की कमाई से काफी ज्यादा रह जाती है।

उस समय तक गाँवों में जिन लोगों के पास जमीन कम थी; ज्यादातर वो ही लोग सरकारी नौकरी में जाने की कोशिश करते थे वरना खेती ही उनका पेशा थी।

आज जीवनयापन के लिए लोगों का नौकरी की तलाश करना मजबूरी है। लोग अपने बच्चों को इस बिना मेहनताना की मेहनत से बचाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं।

चूंकि सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था ( पब्लिक एजुकेशन सिस्टम ) लगभग खत्म कर दी गयी है तो वपैसे का कहीं से जुगाड़ करके भी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश करते हैं ताकि कोई छोटी-मोटी ही सही पर नौकरी लग जाये। कम से कम जीवनयापन तो कर ही लेंगे।

वो भी एक ख्वाब रखते हैं कि उनके बच्चे भी इस सूखी मेहनत की बजाय कहीं आगे जा चुकी दुनिया की बराबरी करने की लाइन में लगें।

किसानों की ये हालात अपने आप नहीं हुई है। ये समय-समय पर सत्ता में बैठे बड़े-बड़े सत्तामाफ़ियाओं की देन है।

ये जनता को बरगलाने में माहिर नेता ही उनका खून पीने में लगे हैं। ये जो रोज नये-नये कानून लेकर आ रहे हैं, खेती को कॉरपोरेट के हाथों में सौंप रहे हैं, ये और कुछ नहीं बल्कि जो थोड़ी बहुत जमीन किसानों के पास बची है उसको लूटने की साजिश है।

एक तरफ किसानों की फसलों की लूट के लिए कानून पास कर रहे हैं, दूसरी तरफ किसानों को पर्याप्त बिजली मिल नहीं रही और बिजली का बिल आये दिन बढ़ता जा रहा है।

जेएनयू में हम एक नारा लगाते हैं:
“कौन बनाया हिंदुस्तान, भारत के मजदूर-किसान!!”

आज सबसे खस्ता हालत में यही वर्ग हैं, दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती। कोई भी आपदा या संकट आये सबसे ज्यादा पिसते यही वर्ग हैं। बाकी लोगों के तो आपदा में भी अवसर निकल आते हैं।

प्रियंका महला
[हैदराबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान विभाग की शोधार्थी हैं।]

(साभार: The Farmer फेसबुक पेज से)


 

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