यह गांधी की शहादत का महीना है, हमें बार बार याद करना चाहिए कि उनकी हत्या किन कायरों ने की!

 


14 जनवरी, 1948 को हिन्दू महासभा के तीन सदस्य नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और दिगंबर बडगे मुम्बई में सावरकर सदन गए. बडगे नीचे ही रुके और बाकी दोनों ऊपर कमरे में गए. जाते समय आप्टे ने हथियारों का बक्सा भी बडगे से ले लिया. दोनों दस-पंद्रह मिनिट बाद लौटे. हथियारों का बक्सा आप्टे ने मदनलाल पाहवा को देकर उन्हें दिल्ली साथ ले चलने को कहा. मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे भी उसी दिन सावरकर से मिलने सावरकर सदन आये थे.

बडगे को आप्टे ने पूछा कि वे दिल्ली अभियान में उनके साथ शामिल होंगे क्या. क्या था वह अभियान ? बडगे को आप्टे ने बताया कि सावरकर ने तय किया है कि गांधी, नेहरू और सुहरावर्दी को अब ख़तम हो जाना चाहिए और उन्होंने यह काम हमें सौंपा है.

ये सब बातें बडगे ने सरकारी गवाह बनने के बाद बयान में बताईं.
दिल्ली जाने से पहले गोडसे ने कहा कि उन्हें सावरकर के अंतिम दर्शन कर लेने चाहिए. 17 जनवरी को वे फिर गए. इस बार भी बडगे नीचे रहे, बाकी दोनों ऊपर गए. जब वे लौटे तो उन्हें छोड़ने सावरकर नीचे आए और बोले “यशस्वी होऊन या” यानी सफल होकर लौटो.

लौटते समय आप्टे ने बडगे को कहा कि सावरकर ने भविष्यवाणी की है कि गांधी के सौ साल पूरे हो गए हैं और इसलिए वे लोग जरूर सफल होंगे.

20 जनवरी को गांधी की हत्या की पहली कोशिश हुई. सभा में बम फूटा पर कोई हताहत नहीं हुआ, मदनलाल पाहवा पकड़ा भी गया. 20 की शाम तक पुलिस ने पता भी लगा लिया था कि गांधी की जान को खतरा है और सावरकर और हिन्दू महासभा इसके पीछे है. डीआईजी मेहरा की इस अपील को कि बिड़ला हाउस आने वाले दर्शनार्थियों की अबसे कड़ी तलाशी ली जाए, को गांधी ने ठुकरा दिया.

गांधी का विश्वास गलत साबित हुआ और 30 जनवरी को इन्हीं लोगों के समूह ने अपनी कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचा दिया.

फरवरी में सभी गिरफ्तारियां हुईं. सावरकर की भी. 27 फरवरी को तत्कालीन गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को ख़त में लिखा कि सावरकर के नेतृत्त्व में हिन्दू महासभा ने ही इस षड्यंत्र को अंजाम दिया.

मुकदमे में सावरकर ने अपनी रक्षा में कहा कि बडगे झूठ बोल रहा है और अगर वह सच बोल रहा है तो आप्टे ने उसे झूठ बोला आदि आदि.

जाहिर है, सबूत पर्याप्त नहीं थे और संदेह का लाभ सावरकर को मिला. सावरकर के खिलाफ मजबूत परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे किन्तु प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था. अफज़ल गुरु के साथ भी यही था. अफज़ल गुरु को फांसी हुई, सावरकर छूट गए.

पूरे मुकदमे के दौरान न सिर्फ सावरकर ने शेष सभी अभियुक्तों से जुड़ाव से इनकार किया बल्कि वे पूरे मुकदमे में सबसे अलग थलग ही रहे. शेष सब आपस में बातें करते थे, सावरकर कठोर मुद्रा के साथ बैठे रहते थे. गोडसे को तो उन्होंने मुड़कर देखा भी नहीं. उनकी इस बेरुखी से गोडसे को बहुत दुःख पहुंचा जो सावरकर की शाबासी के लिए तरसता ही रहा. यह बात दो अभियुक्तों के वकील पी एल ईनामदार ने अपने संस्मरणों की किताब में लिखी है. इन दो में से एक गोपाल गोडसे थे. नाथूराम के भाई.

1964 में जब गोपाल गोडसे छूटे तो उनके सम्मान में हुए समारोह में तिलक के पोते केतकर ने ये कहकर सनसनी फैला दी कि उन्हें गांधी की हत्या के गोडसे के इरादे के बारे में जानकारी थी. इससे ‘असली हत्यारा कौन ?’ की राष्ट्रव्यापी बहस फिर शुरू हो गयी. इनके शमन के लिए 1969 में कपूर कमीशन की स्थापना हुई. इस बीच 1966 में सावरकर की मृत्यु भी हो चुकी थी.

कपूर कमीशन के सामने इस बार दो अन्य महत्त्वपूर्ण गवाहियां आयीं जो पहले सामने नहीं आयीं थीं. एक सावरकर के अंगरक्षक अप्पा रामचंद्र और दूसरे सावरकर के सचिव गजानन विष्णु दामले. दोनों के बयानों से सावरकर से गोडसे और आप्टे की मुलाक़ात की पुष्टि हुई जिसे सावरकर ने पूर्णतः नकारा था. यही नहीं, दोनों के बयानों से यह भी सामने आया कि 20 जनवरी के असफल बम विस्फोट के बाद भी दोनों दोबारा सावरकर से मिलने और निर्देश लेने आये थे. गोडसे, आप्टे ही नहीं करकरे,पाहवा, बडगे सभी सावरकर सदन नित्य आते रहते थे यानी सभी षड्यंत्रकर्ता सावरकर के निकट संपर्क में थे.

इन सभी सबूतों के आधार पर कपूर कमीशन ने अपने अंतिम निष्कर्ष में सावरकर को इस षड्यंत्र में शामिल माना.

( ये सब बिंदु पवन कुलकर्णी के लेख का संक्षिप्त रूप हैं. पूरा लेख यहाँ पढ़ें :
https://thewire.in/140667/savarkar-gandhi-assassination/ )

यह गांधी की शहादत का महीना है. हमें बार बार याद करना चाहिए कि उनकी हत्या किन कायरों ने की.

-Himanshu Pandya

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