जनमानस विशेष

सिनेमाई समझ के सबसे बड़े “हासिल”, आप हमेशा “मक़बूल” रहोगे !

By khan iqbal

April 30, 2020

ये मेरे अंदर की जो खलिश है वो शायद ही शब्दों में बयान हो पाये। ये ऐसे है जैसे भीतर कुछ टूट गया है, अंदर सबकुछ लूट गया है, कोई अपना आज छूट गया है। ये कसक, ये दर्द, ज़ाती भी है और जजबाती भी।

चन्द्रकांता के बद्रीनाथ के बारे में बस सुना था लेकिन इरफ़ान से पहला परिचय कॉलेज के शुरुआती दिनो मे रनविजय भईया के रुप मे हुआ। वो फिल्म थी हासिल।

फिल्म शुरुआत मे कुछ खास नही लगी थी लेकिन ज्यों-ज्यों फ़िल्म आगे बढ़ती थी, एक बुखार सा चढ़ता जा रहा था।

पिच्चर ख़तम होते होते तप रहा था मैं। फिल्मों में ऐसा कुछ भी पहले नहीं देखा था। ऐसे किरदार जो यूं लगते थे कि घर से निकलो तो नुक्कड़ पे बैठे मिलेंगे।

ऐसे किरदार जिनके साथ रोज़ का उठना बैठना था। और उसके बाद तो इरफ़ान से ये परिचय फिल्म दर फिल्म गहराता गया।

रनविजय का वो बेपरवाह अंदाज “और जान से मार देना बेटा, हम रह गए ना, मारने में देर ना लगायेंगे, भगवान कसम.” हर बात में चिपकाने की आदत सी हो गयी थी।

फिर आयी फ़िल्म पान सिंह तोमर जो अपने आप में बॉलीवुड के सभी लिखे-अनलिखे नियमों को तोड़ती हुई मिलती है।

उसके बावजूद आज ये फिल्मों में एक लेजेंड बनी फिरती है। इसके डायलॉग भले ही बीहड़ की रूखी ज़ुबान में हों लेकिन महा शहरी आदमी भी उन्हें दोहराता हुआ मिलता है।

जो उस ज़ुबान में नहीं बोल पाता, अपनी स्टाइल में कहता है। लेकिन कहने से बच नहीं पाता कि “बीहड़ में बाग़ी होते हैं. डकैत होते हैं पाल्लयामेंट में.”

आपके कारनामों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है इरफ़ान ज़िसे इस भरे मन और मेरे कांपते हाथों के लिए समेटना फिलहाल मुमकिन नही है।

मैं आज बस इतना ही जानता हूँ कि आप मेरी सिनेमाई समझ के सबसे बड़े “हासिल” हो। आप हमेशा हमारे “मकबूल” रहेंगे।

#अलविदा_इरफ़ान

साकेत भारद्वाज

(लेखक तेजपुर यूनिवर्सिटी असम में रिसर्च स्कॉलर है)