यह है राजस्थान राज्य के निर्माण की कहानी

आजादी से पहले अंग्रेजों के अधीन भारत मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित था– ब्रिटिश भारत व रजवाड़ों यानी देशी राज्यों का भारत। भारत के जिन इलाकों पर अंग्रेज़ों का सीधा शासन था, उसे ब्रिटिश भारत कहा जाता था। देशी राज्यों को आम बोलचाल की भाषा में “रियासत/ रजवाड़े” कहते थे। ये ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि भारतीय शासकों द्वारा शासित थे। परन्तु उन भारतीय शासकों पर परोक्ष रूप से ब्रिटिश शासन का ही नियन्त्रण रहता था।

देशी राज्यों के शासक यानी राजा-महाराजा ब्रिटिश हुक़ूमत के साथ संधियों से बंधे थे। देशी रियासतो पर ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता स्थापित थी, हालांकि सैद्धांतिक दृष्टि से आंतरिक रूप से ये रियासतें स्वतंत्र थीं पर व्यवहार मे इन पर ब्रिटिश शासन का नियंत्रण था। अंतरराष्ट्रीय मंच पर उन्हें कभी भी स्वतंत्र इकाई का दर्जा नहीं दिया गया था बल्कि इन्हें ब्रिटिश साम्राज्य ( Her Majesty’s Empire ) का ही हिस्सा कहा जाता था। 1876 में देशी शासकों ने महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी मानकर उसकी आधीनता स्वीकार कर ली। तदन्तर ब्रिटिश शासन की ओर से उन्हें उपाधियां दी जाने लगीं।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 के अनुसार देशी राज्यों पर से 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता यानी प्रभुत्व ( बोलचाल की भाषा में ‘माई-बाप’/ मालिक/ स्वामी ) समाप्त हो जानी थी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जानी थी। इसी कारण देशी राज्य अपनी इच्छा अनुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्वतंत्र थे।

जब अंग्रेजों ने स्वतंत्र भारत के साथ या नवोदित पाकिस्तान के साथ जाने या अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रखने के लिए राजा-महाराजाओं को स्वतंत्र छोड़ दिया तो उनके पंख निकल आए। तब कई राजाओं ने स्वतंत्र भारत में अपने लिए विशेषाधिकार मांगकर अपनी ‘विशेष स्थिति’ बनाये रखने की बात कही।

गांधी जी की अगुवाई में देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस का मानना था कि जब ब्रिटिश सरकार सत्ता का हस्तांतरण भारत सरकार को कर रही है तो देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता स्वतः ही भारत सरकार को हस्तांतरित हो जाएगी। अंग्रेज शातिर खिलाड़ी थे। नवगठित कांग्रेस सरकार को देशी राज्यों के संबंध में नव स्वतंत्र भारत में ब्रिटिश सरकार का उत्तराधिकारी नहीं माना गया। देशी राज्यों के राजाओं ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की आड़ लेकर कई खेल खेलने शुरू कर दिए। इस पर सरदार पटेल में राजाओं को चेतावनी भी दी कि यदि कोई नरेश यह सोचता है कि ब्रिटिश परमोच्चता उसको हस्तांतरित कर दी जाएगी, तो यह उसकी भूल है। परमोच्चता तो जनता में निहित है। यानी शासकों की ‘माई-बाप’ अब जनता होगी।

एकीकरण के लिए जन आंदोलन

देशी राज्य प्रजा परिषद की राजस्थान इकाई राजस्थान की समस्त रियासतों को एक इकाई के रूप में संगठित करने के पक्ष में थी। अखिल भारतीय स्तर पर ‘राजस्थान आंदोलन समिति’ का गठन किया गया। देशी राज्यों में जनता द्वारा राज्यों के एकीकरण की मांग बड़े स्तर पर उठने लगी। ऐसी स्थिति बन रही थी कि अगर देशी राज्य राजस्थान में विलीन होने की सहमति न भी दें तो भी उन्हें उनकी अपनी सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है। तेजी से बदलते राष्ट्रीय परिदृश्य एवं पाकिस्तान के शत्रुवत व्यवहार के कारण इन राज्यों को स्वाधीन भारत के अंतर्गत स्वतंत्र इकाई के रूप में रखा जाना संभव नहीं रह गया था।

प्रारंभ में इन राजा- महाराजाओं ने व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से इस एकीकरण की प्रक्रिया का घोर विरोध किया। छुप- छुप कर कई खेल खेले। गुप्त योजनाएं बनाईं। विभिन्न रियासतों में बने हुए प्रजामंडल के नेताओं ने राजा- महाराजाओं की राजनीतिक गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी। जहां कहीं षड्यंत्र की बू आई, इन नेताओं ने अग्रिम रूप से इन राजाओं की प्रवृत्ति के प्रति केंद्रीय नेताओं को सावधान किया।
एकीकरण से पूर्व रियासतों में निरंकुश सरकारें स्थापित थीं। स्वाधीन भारत में रियासतों के एकीकरण के पश्चात स्थिति मे परिवर्तन आया। विलय समझौतों के अनुसार रियासतों के राजाओं ने शासन की समस्त शक्तियों को डोमीनियन सरकार को सौंप दी। विलीन रियासतों की जनता को प्रांतीय विधानमण्डलों ने प्रतिनिधित्व प्रदान किया।

राजस्थान राज्य में रियासतों का विलय

बात राजस्थान में विलीन हुई रियासतों की करते हैं।
मौजूदा राजस्थान के भौगोलिक क्षेत्र के लिहाज से देखें तो भारत की आजादी के समय राजस्थान में 19 रियासतें/ राजवाड़े, 3 छोटे ठिकाने (नीमराणा, लावा व कुशलगढ) तथा अजमेर (मेरवाड़ा ) सीधा अंग्रेजों से शासित प्रदेश था यानी यह ब्रिटिश भारत के अंतर्गत था। ब्रिटिश सरकार से भारत के आजाद होते ही अजमेर रियासत भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के करारों के मुताबिक खुद-ब-खुद भारत का हिस्सा बन गई। इन रियासतों, ठिकानो व केंद्र शासित प्रदेश को एक सूत्र में पिरोकर बांधने से राजस्थान का निर्माण हुआ।

राजस्थान की सभी रियासतों को मिलाकर एक इकाई के रूप में संगठित करने की विकट समस्या थी क्योंकि कई रियासतें पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देख रही थीं। देश आज़ाद होते ही राजा-महाराजा कहने लगे कि उन्होंने आजादी के लिए संघर्ष किया है और उन्हें शासन चलाने का पीढ़ियों से अच्छा तजुर्बा भी है, इसलिए उनके राज्यों को स्वतंत्र राज्य के तौर पर भारत में शामिल किया जाए और शासन उनके ही अधीन बना रहने दिया जाए। स्वतंत्र भारत में ये राजा-महाराजा अपनी स्वतंत्रता खोज रहे थे।

राजस्थान का एकीकरण

राजस्थान का आज जो नक्शा हम देखते हैं, वो 1 नवंबर 1956 को अस्तित्व में आया है। इसके एकीकरण की प्रक्रिया 18 मार्च 1948 से प्रारंभ होकर 1 नवंबर 1956 तक सात चरणों में पूरी हुई। यही प्रक्रिया राजस्थान का एकीकरण कहलाती है। राजस्थान का गठन 9 वर्षों में पूरा हुआ। अब क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है।

प्रथम चरण : मत्स्य संघ (मत्स्य यूनियन) 18 मार्च 1948

अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली व नीमराणा ठिकाना ( 4+ 1 ) का विलय कर तत्कालीन भारत सरकार ने 1948 में अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर ‘मत्स्य यूनियन’ के नाम से पहला संघ बनाया। मत्स्य संघ का विधिवत् उद्घाटन 18 मार्च 1948 ई. को एन वी. गाडगिल (नरहरि विष्णु गाडगिल ) ने लौहागढ़ दुर्ग ( भरतपुर) में किया। धौलपुर के तत्कालीन महाराजा उदयभानसिंह को राजप्रमुख, महाराजा करौली को उप-राजप्रमुख और अलवर प्रजामंडल के प्रमुख नेता श्री शोभाराम कुमावत को मत्स्य संघ का प्रधानमंत्री बनाया गया। इसकी राजधानी अलवर रखी गयी थी। मत्स्य यूनियन राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला और महत्वपूर्ण कदम था।

यह कैसे हुआ? इसकी कहानी हतप्रभ करने वाली है।

30 जनवरी 1948 को दिल्ली में महात्मा गांधी की हत्या हुई, जिसकी जांच-पड़ताल में हत्या की साजिश में अलवर रियासत का नाम भी सामने आया। अलवर रियासत के शासक तेजसिंह के दीवान ( प्रधानमंत्री ) नारायण भास्कर खरे ने महात्मा गांधी की हत्या के कुछ दिन पूर्व नाथूराम गोडसे व उसके सहयोगी परचुरे को अलवर में शरण दी थी। ऐसा आरोप सामने आया। हिंदू महसभा के साथ अलवर रियासत के प्रगाढ़ रिश्ते थे। एनबी खरे हिंदू महासभा की गतिविधियों में शामिल भी होते रहते थे।

गांधी जी की हत्या के तुरंत बाद अलवर प्रजा मण्डल ने यह आरोप लगाया कि गांधी जी की हत्या में अलवर के राजा तेजसिंह और प्रधानमंत्री एन. वी. खरे का हाथ है और उन्हें तुरंत गिरफ्तार किया जाए। इस पर सरदार पटेल ने महाराजा तेजसिंह व प्रधानमंत्री एन. वी. खरे ( 3 फरवरी 1948 ) को दिल्ली बुलाया और वहां उनको नज़रबंद कर दिया गया। एन. वी. खरे को अलवर रियासत के प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया और अलवर राज्य का प्रशासन भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया।

5 फरवरी 1948 को रेडियो पर समाचार प्रसारित हुआ कि महाराजा अलवर को दिल्ली शहर में रहने का हुकुम हुआ है और अलवर के दीवान पर दिल्ली नगर के मजिस्ट्रेट ने शहर से बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी है। कई राजाओं ने भारत सरकार की इस कार्रवाई पर रोष जताया तो वायसराय माउंटबेटन ने बीकानेर एवं अन्य महाराजाओं के सामने वे सबूत रखे जिनसे यह प्रकट होता था कि गांधीजी के हत्या में अलवर राज्य और उसके अधिकारियों का हाथ है।

अलवर के मसले में कुछ आशंकाओं को भांपकर सरदार पटेल खुद अलवर आए तथा वहां आम सभा में उन्होंने राजपूतों तथा राजपूत शासकों को उनके कर्तव्य का स्मरण करवाते हुए कहा–
‘छोटे राज्य अब बने नहीं रह सकते… अब शक्ति, प्रतिष्ठा तथा वर्ग का चिंतन उचित नहीं होगा…आज सफाईकर्मी की झाड़ू राजपूतों की तलवार से कम महत्वपूर्ण नहीं है।’

अलवर नरेश को नजरबंद कर अलवर राज्य का प्रशासन भारत सरकार द्वारा अपने हाथ में लेने से अन्य रियासतों के राजाओं में भय व्याप्त हो गया और वे राष्ट्रीय नेताओं के दबाव में आ गए। इसी कड़ी में भारत सरकार ने 10 फरवरी 1948 को भरतपुर महाराजा बृजेंद्र सिंह को दिल्ली बुलाया और उनके विरुद्ध एकत्र किए गए आरोपों से उन्हें अवगत करवा कर उन्हें निर्देश दिया कि वे राज्य प्रशासन का दायित्व भारत सरकार को सौंप दें। अलवर महाराजा तथा प्रधानमंत्री पहले ही दिल्ली में नजरबंद किए जा चुके थे, इसलिए भरतपुर महाराजा ने अनिच्छा से सहमति प्रदान कर दी। 9 मार्च 1948 को भरतपुर का शासन केन्द्र ने अपने हाथ में ले लिया। भरतपुर महाराजा को भरतपुर में रहने की आज्ञा दे दी गई।

अलवर तथा भरतपुर राज्य से सटे धौलपुर व करौली राज्यों के राजाओं को 27 फरवरी 1948 को दिल्ली बुलाया गया और उन्हें अलवर और भरतपुर राज्य के साथ संघ में शामिल होने की सलाह दी गई।

ये चार राज्य–अलवर, भरतपुर, धौलपुर व करौली, भौगोलिक व सांस्कृतिक रूप से साम्य रखते थे, इसलिए श्री के. एम. मुंशी ने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इस संघ का नाम मत्स्य संघ सुझाया जो कि स्वीकार कर लिया गया। चारों राज्यों में 28 फरवरी 1948 को एक प्रसंविदा ( contract ) पर हस्ताक्षर किए। इस संघ को ‘संयुक्त राज्य मत्स्य संघ’ कहा गया। इसमें महाराजा धौलपुर राज्य प्रमुख और अलवर महाराजा उप राज्य प्रमुख मनोनीत हुए। 15 मार्च 1948 को महाराजा तेजसिंह अलवर लौट आए। यह संघ 17 मार्च 1948 को अस्तित्व में आया।

दूसरा चरण – राजस्थान संघ (राजस्थान यूनियन )

25 मार्च 1948 डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, किशनगढ़, टोंक, बूंदी, कोटा, झालावाड़ एवं कुशलगढ़ ठिकाना (9+ 1 )

बांसवाड़ा के महारावल चंद्रवीर सिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करते समय कहा था कि ’मैं अपने डेथ वारंट पर हस्ताक्षर कर रहा हूं।’

राजस्थान संघ में विलय हुई रियासतों में कोटा बड़ी रियासत थी, इस कारण इसके तत्कालीन महाराव भीमसिंह को राजप्रमुख बनाया गया और इसकी राजधानी कोटा रखी गई। इसका उद्घाटन कोटा दुर्ग में एन.वी. गाडगिल द्वारा किया गया ।

तीसरे चरण की पृष्ठभूमि

जब मेवाड के महाराणा भूपालसिंह ने राजस्थान संघ में शामिल होने से मना कर दिया तो वहां की प्रजा मंडल के नेता माणिक्य लाल वर्मा ने मेवाड के महाराणा का विरोध करते हुए कहा कि मेवाड़ की बीस लाख जनता के भाग्य का फैसला अकेले महाराणा और उनके प्रधानमंत्री सर राममूर्ति नहीं कर सकते। इससे मेवाड़ में महाराणा का विरोध होने लगा। इस पर 23 मार्च 1948 को मेवाड़ के महाराणा ने अपनी रियासत के प्रधानमंत्री सर राममूर्ति को वी पी. मेनन के पास भेजा और उन्हें अपनी मांगों से अवगत करवाया।

उदयपुर महाराणा की तीन प्रमुख मांगे थीं। महाराणा को संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए। दूसरी यह कि उन्हें 20 लाख रुपया प्रिवीपर्स दिया जाए। तीसरी यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाई जाए।

इस दबाव में महाराणा उदयपुर ने व्यक्तिगत सम्पत्ति और अपना प्रीविपर्स ज्यादा घोषित करा लिया। रियासती सचिवालय में यह नीति निश्चित कर दी थी कि किसी भी रियासत के शासक को 10 लाख रुपये से अधिक प्रिवीपर्स नहीं दिया जाएगा किंतु महाराणा की मांग पूरी करने के लिए उन्हें 10 लाख रुपये प्रिवीपर्स, 5 लाख रुपये राज प्रमुख पद का वार्षिक भत्ता एवं शेष 5 लाख रुपये मेवाड़ राजवंश की परंपरा के अनुसार धार्मिक कृत्यों पर खर्च के लिए दिया जाना स्वीकार कर लिया गया।

बता दें कि मेवाड़ के महाराणा भोपालसिंह एकीकरण के समय शारीरिक रूप से अपाहिज थे। बाहर चलने-फिरने की स्थिति में भी नहीं थे।

उदयपुर महाराणा को संतुष्ट करने के लिए राजस्थान संघ को यूनाइटेड स्टेट्स ऑव राजस्थान कहा गया। भारत के रियासती विभाग ने महाराणा उदयपुर की मनचाही शर्तें स्वीकार कीं। इतनी रियायतें और किसी शासक को नहीं दी गईं क्योंकि इससे बड़ी रियासतों के भी संघों में जुड़ने का मार्ग प्रशस्त हुआ

तीसरा चरण : संयुक्त राजस्थान – 18 अप्रैल, 1948

संयुक्त राजस्थान (यूनाइटेड स्टेट ऑव राजस्थान)
संयुक्त राजस्थान – राजस्थान संघ + उदयपुर ( 10+1 )

राजस्थान संघ में उदयपुर रियासत का विलय कर ‘संयुक्त राजस्थान’ का निर्माण हुआ। पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा इसका उद्घाटन किया गया। महाराणा मेवाड –भूपालसिंह राजप्रमुख व माणिक्यलाल वर्मा प्रधानमंत्री बने। उदयपुर को इस नए राज्य की राजधानी बनाया गया। कोटा महाराव भीमसिंह को उप-राजप्रमुख बनाया गया।

चौथे चरण की पृष्ठभूमि

14 जनवरी 1949 को पटेल ने उदयपुर में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी। जयपुर के महाराजा मानसिंह द्वितीय ने शर्त रखी कि उसे इस नए राज्य का वंशानुगत यानी पीढ़ी दर पीढ़ी राजप्रमुख बनाया जाए तथा जयपुर को नए राज्य की राजधानी बनाए जाए। बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को जीवन पर्यंत राजप्रमुख बनाया जाए। यह भी निर्णय लिया गया कि उदयपुर महाराणा भूपाल सिंह को महाराज प्रमुख बनाया जाए किंतु यह पद तथा उन्हें दिए जाने वाले भत्ते उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएंगे। भीमसिंह (कोटा) को उपराजप्रमुख बनाने पर सहमति हुई। इसी क्रम में बीकानेर को 17 लाख रुपए, जोधपुर को 17.5 लाख रुपये तथा जयपुर को 18 लाख रुपये प्रिवीपर्स यानी निजी कोष /जेब खर्चा के रूप में दिया जाना निश्चित हुआ। राजप्रमुख को 5. 5 लाख वार्षिक भत्ता दिया जाना निश्चित किया गया।

चौथा चरण : वृहत् राजस्थान (ग्रेटर राजस्थान)– 30 मार्च 1949

वृहत् राजस्थान का मतलब संयुक्त राजस्थान + जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर व बीकानेर + लावा ठिकाना ( 14+2 )

हाई कोर्ट जोधपुर में, शिक्षा का विभाग बीकानेर में, खनिज और कस्टम व एक्साइज विभाग उदयपुर में, वन और सहकारी विभाग कोटा में एवं कृषि विभाग भरतपुर में रखने का निर्णय किया गया।

बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर रियासतों के विलय के साथ ही 30 मार्च 1949 को युनाइटेड स्टेट ऑव राजस्थान से बदलकर ग्रेटर राजस्थान हो गया, जिसका उद्घाटन भारत सरकार के तत्कालीन रियासती और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया।
30 मार्च को प्रत्येक वर्ष राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

राजस्थान शब्द का अर्थ है- ‘राजाओं का स्थान’, क्योंकि यहां गुर्जर, राजपूत, मौर्य, जाट आदि जातियों के राजाओं ने पहले राज किया था।

अविभाजित भारत में बीकानेर रियासत का क्षेत्र अब के नए जिलों श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर और चूरू जिले को मिलाकर बना था। इसके अलावा बहावलपुर के साथ ही अभी हरियाणा के ऐलनाबाद तक बीकानेर रियासत की सीमा लगती थी। तत्समय बीकानेर रियासत 23319 वर्गमील या 60,391 वर्ग किलोमीटर में फैली थी। उस वक्त जयपुर रियासत का क्षेत्रफल 15601 और जोधपुर का 16071 वर्गमील था। बाकी सारी रियासतों और उप रियासतों का क्षेत्रफल इनसे बहुत कम था। ऐसे में राजस्थान के निर्माण में सबसे बड़ा क्षेत्रफल किसी रियासत का शामिल हुआ तो वह बीकानेर का था।

7 अप्रैल 1949 को पं. हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में वृहत राजस्थान की सरकार बनी। विभिन्न रियासतों के प्रजामंडल कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। जनवरी 1952 में आयोजित होने वाले प्रथम चुनाव से पूर्व 1951 के अंत में राजस्थान किसान सभा, जिसके अध्यक्ष बलदेव राम मिर्धा थे, का भी कांग्रेस में विलय हो गया।

पांचवां चरण: संयुक्त वृहत / वृहतर राजस्थान (यूनाइटेड स्टेट ऑव ग्रेटर राजस्थान) राजस्थान) 15 मई 1949

वृहत्तर राजस्थान:- वृहद राजस्थान + मत्स्य संघ
(14+2 ) +( 4+ 1 ) = ( 18+3 )
पांचवे चरण में पहले से ही सम्मिलित चार रियासतें ( अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली व नीमराणा ठिकाना ) जो कि पहले चरण में ही ‘मत्स्य संघ’ के नाम से स्वतंत्र भारत में विलय हो चुकी थीं उनका विलय 15 मई 1949 को राजस्थान राज्य में हुआ था। मत्स्य संघ के मुख्यमंत्री शोभाराम को मंत्रिमंडल राजस्थान में ले लिया गया।

भारत सरकार ने 18 मार्च 1948 को जब मत्स्य संघ बनाया था तभी विलय पत्र में लिख दिया गया था कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा। इस कारण भी यह चरण औपचारिकता मात्र माना गया। शंकरराव देव समिति की सिफारिश पर मत्स्य संघ को वृहत्तर राजस्थान में मिलाया गया ।

छठा चरण : राजस्थान संघ (यूनाइटेड स्टेट) 26 जनवरी 1950

राजस्थान संघ:- वृहत्तर राजस्थान + सिरोही (19+3)

भारत का संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 को सिरोही रियासत का भी विलय ग्रेटर राजस्थान में कर दिया गया। इस विलय को भी औपचारिकता माना जाता है क्योंकि यहां भी भारत सरकार का नियंत्रण पहले से ही था। दरअसल जब राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब सिरोही रियासत के शासक नाबालिग थे।

सिरोही रियासत के एक हिस्से– आबू व देलवाडा तहसीलों — को बम्बई प्रान्त में मिला दिया गया, जिसका काफ़ी विरोध होने लगा।

26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होने पर इस भू-भाग को विधिवत ‘राजस्थान’ नाम दिया गया।

सातवां चरण : वर्तमान राजस्थान 1 नवम्बर 1956
वर्तमान राजस्थान ( रि-आर्गेनाइजेशन ऑव राजस्थान)

वर्तमान राजस्थान:- राजस्थान संघ + आबू- देलवाड़ा + अजमेर मेरवाड़ा + सुनेल टप्पा – सिरोंज क्षेत्र ( 19+3+1 )

राज्य पुनर्गठन आयोग ( फजल अली की अध्यक्षता में गठित) की सिफारिशों के अनुसार सिरोही की आबू व देलवाड़ा तहसीलें, मध्यप्रदेश के मंदसोर जिले की मानपुरा तहसील का सुनेल टप्पा व अजमेर
–मेरवाडा क्षेत्र राजस्थान में मिला दिया गया तथा राज्य के झालावाड जिले का सिरोंज क्षेत्र मध्यप्रदेश में मिला दिया गया। इस तरह वर्तमान राजस्थान राज्य का निर्माण हुआ है। राजस्थान राज्य में तब 26 जिले बने और अब 33 जिले बन चुके हैं।

भौगोलिक व भाषा की दृष्टि से अजमेर सदा राजस्थान का भाग रहा था। ब्रिटिश शासन काल में राजनीतिक कारणों से इसे सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन रखा गया ताकि वहां से राजस्थान की रियासतों पर कड़ी नजर व नियंत्रण रखा जा सके।

अजमेर चारों ओर से राजस्थान की रियासतों से घिरा था। 1 नवंबर 1956 से पहले अजमेर राज्य (केन्द्रीय शासित) रहा जिसके मुख्यमंत्री हरिभाई उपाध्याय रहे और राजस्थान में विलीनीकरण पर उन्हें मंत्री बनाया गया।

इस प्रकार विभिन्न चरणों से गुजरते हुए राजस्थान निर्माण की प्रक्रिया 1 नवम्बर, 1956 को पूर्ण हुई और इसी के साथ आज से राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका।

राजाओं के दांव पेंच की रोमांचक कहानी

रियासतों का एकीकरण कर उन्हें भारत का हिस्सा बनाने के लिए रियासती विभाग की स्थापना 5 जुलाई , 1947 को की गई, जिसका अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल को बनाया गया। तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिब वी.पी. मेनन की कार्य कुशलता से रियासतों का एकीकरण हो पाया।

भारतीय देशी रियासतों के शासकों से बातचीत करने का दायित्व भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को सौंपा गया था। इसी क्रम में माउंटबेटन ने 25 जुलाई 1947 को नरेंद्र मंडल का एक पूर्ण अधिवेशन बुलाया। इस अधिवेशन में ही उनसे यह कहा गया था कि रियासतें तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले तथा संचार को छोड़ कर भारत या पाकिस्तान, जो उनके लिए उपयुक्त हो, के साथ अपना विलय कर सकती हैं।

यहां यह स्पष्ट करना प्रासंगिक होगा कि नरेंद्र मंडल या नरेश मंडल (Chamber of Princes ) ब्रिटिशकालीन भारत के विधान मंडल का एक उच्च व शाही सदन था जिसका गठन ब्रिटिश हुकूमत ने देशी राजाओं को अपने पक्ष में करते हुए कांग्रेस से लड़ने के लिए किया था। देशी नरेशों की सदस्यता वाली इस संस्था या देशी राज्यों का संघ भारत में अंग्रेज सरकार की सुरक्षा प्राचीर था जिसकी चिनाई बांटो और राज करो के चुना- गारे से हुई थी।

माउंटबेटन ने आज़ादी से दो हफ्ते पहले ‘चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज’ के राजाओं और नवाबों को संबोधित किया। रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि वायसराय का यह हिंदुस्तान के लिए सबसे बड़ा योगदान था। माउंटबेटन ने वहां मौजूद राजाओं को चेतावनी दी कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद रियासतदारों की हालत अब ‘बिना पतवार की नाव’ जैसी है और अगर उन्होंने भारत में विलय न किया तो इससे उपजी अराजकता के लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार होंगे। माउंटबेटन के शब्द थे, ‘आप अपने सबसे नज़दीक पड़ोसी यानी आज़ाद भारत से भाग नहीं सकेंगे और न ही लंदन की महारानी आपकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेंगी। बेहतर होगा कि आप आज़ाद होने का ख्व़ाब न देखें और हिंदुस्तान में विलय को स्वीकार करें।’ इस संबोधन का असर यह हुआ कि 15 अगस्त 1947 आते-आते लगभग सारे राजाओं और नवाबों ने विलय की संधि पर दस्तख़त कर दिए। भारत में विलय के समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले इन शासकों में बीकानेर राज्य के महाराजा सादुलसिंह अग्रणी थे। सर्वप्रथम बीकानेर के शासक सादुलसिंह ने 7 अगस्त 1947 को भारत में विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे।

राष्ट्रीय परिदृश्य पर घट रही घटनाओं के साथ रियासतों के शासकों के मन में ख़ूब उथलपुथल होने लगी।बीकानेर नरेश भले ही जोर- शोर से भारत संघ में मिलने की घोषणा कर रहे थे किंतु वे भयभीत थे और यह आश्वासन भी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में उनकी रियासत पूरी तरह स्वतंत्र बनी रहेगी। 15 अगस्त 1947 को महाराजा ने एक भाषण में स्वतंत्र भारत में स्वतंत्र बीकानेर की कल्पना को दोहराया और कहा कि बीकानेर का राजकीय ध्वज बीकानेर के सार्वभौम सत्ता का द्योतक है।

बीकानेर के स्वतंत्रता सेनानी दाऊलाल आचार्य ने, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बीकानेर महाराजा का झुकाव पाकिस्तान की ओर हो जाने की एक घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं- ‘पाकिस्तान की बहावलपुर रियासत की सीमाएं बीकानेर राज्य से लगी हुई थीं जहाँ बड़ी संख्या में हिन्दू शरणार्थी फंसे पडे़ थे। सरदार पटेल उन फंसे हुए शरणार्थियो को वहाँ से निकाल कर भारत में लाने को उत्सुक थे। साथ ही इन दोनों रियासतों के मध्य कुछ सीमा सम्बन्धी विवाद भी हल किया जाना था। इस हेतु पटेल ने भारत सरकार के सैन्य अधिकारी मेजर शॉट को बीकानेर भेजा। बहावलपुर रियासत के प्रधानमंत्री नवाब मुश्ताक अहमद गुरमानी को भी बीकानेर बुलाया गया।

7 नवम्बर 1947 को मेजर शॉर्ट की मध्यस्थता में दोनों रियासतों के मध्य शरणार्थियों एवं सीमा सम्बन्धी विवादों पर चर्चा हुई तथा एक समझौता भी हुआ। उसके बाद उसी दिन शाम की ट्रैन से मेजर शॉर्ट दिल्ली चला गया और गुरमानी को भी सरकारी रिकॉर्ड में उसी दिन बहावलपुर जाना अंकित कर दिया गया। जबकि वास्तविकता यह थी कि महाराजा सादूलसिंह ने गुरमानी को गुप्त मंत्रणा के लिए लालगढ़ में ही रोक लिया था। तीन दिन तक गुरमानी लालगढ़ में रहा। इस दौरान राजमहल का सारा स्टाफ मुसलमानों का रहा। अपवाद स्वरूप कुछ हीं हिन्दू कर्मचारियों को महल में प्रवेश दिया गया। महाराजा के अत्यंत विश्वस्त लोगों और उर्दू के जानकार लोगों को ही महल में आने की अनुमति थी। राज्य के जनसंपर्क अधिकारी बृजराज कुमार भटनागर को प्रवेश दिया गया। वे उर्दू के जानकार भी थे।

तीन दिन तक गुरमानी और महाराजा सादूलसिंह के बीच गुप्त मंत्रणा चलती रहीं। इस दौरान सादूलसिंह का झुकाव पाकिस्तान की ओर हो गया किंतु कैसे कुछ किया जाये, यह सूझ नहीं पा रहा था। अंत में यह निर्णय लिया गया कि प्रायोगिक तौर पर छः माह के लिये बीकानेर और बहावलपुर रियासत के मध्य एक व्यापारिक समझौता हो। समझौता लिखित में हुआ तथा दोनों ओर से हस्ताक्षर करके एक दूसरे को सौंप दिया गया।

बृजराज कुमार भटनागर ने यह बात बीकानेर में हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता दाऊलाल आचार्य को बता दी। यह सामाचार 17 नवम्बर 1947 को हिन्दुस्तान टाइम्स के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित हुआ जिससे दिल्ली और बीकानेर में हड़कम्प मच गया। बीकानेर प्रजा परिषद के नेताओं ने इस संधि का विरोध करने का निर्णय लिया और दिल्ली जाकर भारत सरकार को ज्ञापन देने की घोषणा की। यह रक्षा से सम्बद्ध मामला था तथा संघ सरकार के अधीन आता था इसलिये सरदार पटेल ने तुरंत एक सैन्य सम्पर्क अधिकारी को बीकानेर व बहावलपुर की सीमा पर नियुक्त किया और बीकानेर महाराजा को लिखा कि वे इस अधिकारी के साथ पूरा सहयोग करें। बीकानेर के गृह मंत्रालय द्वारा सामाचार पत्र के संवाददाता को समाचार का स्त्रोत बताने के लिये कहा गया। उन्हीं दिनों बीकानेर सचिवालय की ओर से रायसिंह नगर के नाजिम को एक तार भेजकर सूचित किया गया कि बहावलपुर रियासत से हमारा व्यापार यथावत चल रहा है। रायसिंह नगर में रेवेन्यू विभाग के पूर्व पेशकार मेघराज पारीक ने वह तार नाजिम के कार्यालय से चुरा लिया और दाऊलाल आचार्य को सौंप दिया। इस तार में लिखा संदेश जगजाहिर होने के बाद बीकानेर राज्य का गृह विभाग शांत होकर बैठ गया।

स्पष्ट है कि बीकानेर महाराजा सादूलसिंह ने रियासत को अलग इकाई रखने हेतु जो दुरभिसंधियां कीं, उनकी सूचना दाऊलाल आचार्य एवं मूलचंद पारीक ने यथा समय उच्चस्थ विभागों को पहुंचाई और उसी का नतीजा है कि बीकानेर रियासत भारत में रह सकी और राजस्थान राज्य का हिस्सा बनी।

दिसंबर 1947 में बीकानेर महाराजा ने लुहारू रियासत के नवाब के साथ सांठगांठ कर उसे बीकानेर राज्य में शामिल करने को राजी कर लिया। जबकि लुहारू की प्रजा पूर्वी पंजाब में शामिल होना चाहती थी। जन विरोध को देखते हुए भारत सरकार ने लुहारू राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया। इससे बीकानेर महाराजा को बड़ी निराशा हुई।

तदनंतर महाराजा सादुलसिंह ने बीकानेर व राजस्थान की अन्य रियासतों का भारत संघ में एकीकरण रोकने का हर संभव प्रयास किया। उदयपुर राज्य अलग रह सकने योग्य सक्षम राज्य की श्रेणी में आता था किंतु उसके संयुक्त राजस्थान संघ में मिलने के निर्णय से जोधपुर, बीकानेर तथा जयपुर के शासकों को बड़ा धक्का लगा। बीकानेर महाराजा सादुलसिंह ने मेवाड़ महाराणा को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि मेवाड़ राजस्थान यूनियन में नहीं मिले। महाराजा सादुलसिंह ने अपनी अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री कु. जसवंत सिंह को उदयपुर भेजा ताकि वह महाराणा से व्यक्तिगत भेंट करके महाराणा को राजस्थान में मिलने से रोके। जसवंत सिंह ने महाराणा से कहा कि मेवाड़ एक ऐसी रियासत थी जो मुगलों के सामने नहीं झुकी, आज वही रियासत कांग्रेस के सामने कैसे झुक रही है? महाराणा ने महाराजा सादुलसिंह के इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया और सादुलसिंह को कहलवाया कि वे तो अपनी रियासत कांग्रेस को समर्पित कर चुके हैं। अन्य राज्यों का समर्पण भी अवश्यंभावी है। महाराणा के इस जवाब से बीकानेर नरेश के मनोबल में काफी गिरावट आई।

बीकानेर नरेश को पूरा भरोसा था कि वह स्वतंत्र भारत में बीकानेर रियासत का अलग अस्तित्व बनाए रखने में सफल हो जाएंगे किंतु जब उदयपुर, जयपुर व जोधपुर नरेशों ने राजस्थान में विलय की स्वीकृति दे दी तो स्थिति पलट गई। बीकानेर नरेश ने अपनी रियासत को राजस्थान में विलय से बचाने के लिए खजाने की थैलियों का मुंह खोल दिया। बीकानेर में ‘विलीनीकरण विरोधी मोर्चा’ खड़ा किया गया जिसमें रियासत के ‘राजभक्त’ डॉक्टर, न्यायाधीश व रिटायर्ड अधिकारी शामिल थे। यहां तक कहा जाने लगा कि युद्ध एवं प्यार में उचित और अनुचित नहीं देखा जाता है। मोर्चे ने बीकानेर रियासत के मुसलमानों को अपने राजा के प्रति वफादारी प्रदर्शित करने का आह्वान किया और इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए मुस्लिम लीग के मुख पत्र डॉन के संपादक को बीकानेर राज्य में आमंत्रित किया। उसने मुस्लिम क्षेत्रों और मस्जिदों में लीगी प्रचार किया।

6 दिसंबर 1948 को वीपी मेनन बीकानेर आए। उन्होंने बीकानेर राज्य के मुख्य नागरिकों से मिलकर बीकानेर रियासत के राजस्थान में एकीकरण के संबंध में उनकी इच्छा मालूम की। मेनन ने जब महाराजा सादुलसिंह से बीकानेर राज्य के राजस्थान में एकीकरण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने का निवेदन किया तो महाराजा ने हस्ताक्षर करने से स्पष्ट मना कर दिया। कहा जाता है कि सरदार पटेल ने महाराजा को बहावलपुर- बीकानेर व्यापार संधि और चने की निकासी के परमिट जारी करने के घोटालों की जांच करने वाली महाजन कमेटी की रिपोर्ट की अदालती जांच करवाने की बात कही तो महाराजा तत्काल एकीकरण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने को सहमत हो गए।

बीकानेर रियासत के राजस्थान में एकीकरण को बीकानेर महाराजा ने बलपूर्वक नियंत्रण माना। वृहत राजस्थान के उद्घाटन समारोह से ठीक एक दिन पहले महाराजा ने सरदार पटेल को पत्र लिखकर सूचित किया कि मेरा परिवार विगत पांच शताब्दियों से बीकानेर से अपने रक्त संबंध से जुड़ा रहा है। मेरे लिए यह दिन प्रसन्नता मनाने का नहीं अपितु यह दिन मेरे लिए अत्यंत अवसाद और दुःख का दिन है।

जोधपुर महाराजा की चालबाजी

भोपाल नवाब हमीदुल्लाह खां खासतौर पर पाकिस्तान परस्त था। वह चाहता था कि भोपाल से लेकर कराची तक के मार्ग में आने वाली रियासतों का एक समूह बने जो पाकिस्तान में मिल जाए। इसलिए उसने जिन्ना की सहमति से एक योजना बनाई। योजना यह थी कि बड़ौदा, इंदौर, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर, जैसलमेर रियासतें पाकिस्तान का अंग बन जाएं। इस योजना में सबसे बड़ी बाधा उदयपुर और बड़ौदा की ओर से उपस्थित हो सकती थी। महाराजा जोधपुर ने इन दोनों रियासतों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। भोपाल नवाब ने धौलपुर महाराजा उदयभान सिंह को भी इस योजना में सम्मिलित कर लिया। जिन्ना के संकेत पर नवाब तथा धौलपुर महाराजा ने जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर तथा जयपुर आदि रियासतों की राजाओं से बात की तथा उन्हें जिन्ना से मिलने के लिए आमंत्रित किया।

भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर जोधपुर महाराजा हनवंतसिंह ने उदयपुर के महाराणा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन हनवंतसिंह के प्रस्ताव को उदयपुर महाराणा ने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि एक हिंदू शासक हिंदू रियासत के साथ मुसलमानों के देश में शामिल नहीं होगा। उदयपुर महाराणा ने कहा कि ‘भारतीय महाद्वीप में मेवाड़ का स्थान कहां होगा, इसका निर्णय तो मेरे पूर्वज शताब्दियों पूर्व कर चुके हैं। यदि वे देश के प्रति गद्दारी करते तो मुझे भी आज हैदराबाद जैसी बडी रियासत विरासत में मिलती। पर न तो मेरे पूर्वजों ने ऐसा किया और न मैं ऐसा करूंगा।’

15 अगस्त 1947 को जोधपुर में राज्य सरकार की ओर से जो समारोह आयोजित किया गया उसमें महाराजा हनवंतसिंह ने बादलिया ( हल्के नीला ) रंग का साफा पहन कर परेड की सलामी ली परंतु उन्होंने इस अवसर पर कोई भाषण नहीं दिया। मारवाड़ में नीले रंग को किसी शोक के समय धारण किया जाता है। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने जब महाराजा को टोकते हुए कहा की आज तो उन्हें केसरिया साफा पहनना चाहिए था, इस पर महाराजा ने कहा, “म्हारो तो आज 36 पीढियां रो राज खत्म हुयो है! म्हारे तो आज शोक है।’

अगस्त 1947 में हनवंतसिंह धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से मिले। जिन्ना ने हनुवंतसिंह को पाकिस्तान में शामिल होने की सूरत में कई प्रोलभन दे रखे थे। हनुवंत सिंह लगभग मान गए थे। रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी.मेनन ने अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ इंटीग्रेशन ऑव इंडियन स्टेटस’ में इस प्रकरण का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेताओं की जोधपुर नरेश से कई मुलाकाते हुई थी और अंतिम मुलाकात में वे जैसलमेर के महाराजकुमार को भी साथ ले गए थे।

पाकिस्तान में मिलने के मुद्दे पर जोधपुर का माहौल तनावपूर्ण हो चुका था। लॉर्ड माउन्टबेटन ने हनवंत सिंह को समझाया कि धर्म के आधार पर बंटे देश में मुस्लिम रियासत न होते हुए भी पाकिस्तान में मिलने के उनके फैसले से सांप्रदायिक भावनाएं भड़क सकती हैं। सरदार पटेल ने जोधपुर के महाराज को आश्‍वासन दिया कि भारत में उन्हें सब सुविधाएं दी जाएंगी। अंततः महाराजा हनवंतसिंह ने समय की नज़ाकत को भांपते हुए विलयपत्र पर हस्ताक्षर किए।

कॉलिंस और डोमिनिक लेपियर की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’, लियोनार्ड मोसले की पुस्तक ‘द लास्ट डेज ऑव द ब्रिटिश राज इन इंडिया’, डी.आर. मानकेकर की पुस्तक ‘एक्सेशन टू एक्सटिंक्शन’ में रियासतों के विलय से जुड़े प्रकरणों का उल्लेख मिलता है। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर’ में भी जोधपुर राज्य के भारत मे विलय से पहले घटी घटनाओं का उल्लेख किया गया है।

राजाओं द्वारा व्यक्तिगत विशेषाधिकार की मांग

भारत संघ में विलय के समय राजाओं ने दबाव बनाकर अपने लिए ख़ूब सुविधाएं हड़प लीं। बीकानेर नरेश ने 31 जुलाई 1947 को रियासती मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखकर नरेशों के व्यक्तिगत विशेषाधिकारों की मांग की। इस पर उन्हें आश्वासन दिया गया कि नरेशगण व उनके परिवार जिन विशेष अधिकारों का उपयोग करते रहे हैं, वे भविष्य में भी करते रहेंगे। यह सब होते हुए भी रजवाड़े अपने विशेषाधिकारों, अपने हीरे-जवाहरातों, संपत्तियों तथा अपनी नृत्यांगनाओं को बचाने के लिए पर्दे के पीछे से मोलभाव कर रहे थे। जो विशेषाधिकार राजाओं को दिए गए उनमें उनके महल व किले उनके अधिकार में रहे, टैक्स से मुक्ति, पानी- बिजली निःशुल्क, विदेशों से वापसी पर कस्टम के लिए सामान की जांच से छूट और न्यायालय में उपस्थिति से छूट। भारत सरकार की अनुमति के बिना किसी महाराजा पर दीवानी या फौजदारी मुकदमा दायर नहीं किया जाए। मर्यादा के अनुकूल विशेष अवसरों पर उनको तोपों की सलामियां, फौजी सलामियां, लाल कालीन के दस्तूर इत्यादि सम्मिलित थे।

महाराजाओं को उनके अपने करोड़ों रुपए की कीमत के हीरे- जवाहरात रखने का अधिकार रहा। चूंकि ताज रियासती संपति समझी जाती थी, इसलिए ताज रखने का अधिकार नहीं दिया गया। परंतु लालची राजाओं ने ताज में से असली हीरे- जवाहरात निकलवाकर उनकी जगह नकली लगाकर अपने ताज जमा करवा दिए ।

सरदार पटेल ने जानबूझकर राजाओं की इस प्रवृत्ति की ओर से आंखें मूंद ली थी। रियासती मंत्रालय के जो अधिकारी राजाओं से समझौता कराने के लिए नियुक्त थे, उन्होंने अपनी जेबें खूब गर्म कीं। ( स्रोत: दीवान जरमनी दास, महाराजा, पृष्ठ 390-94 )

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 291 तथा अनुच्छेद 362 द्वारा देशी रजवाड़ों को उनके विशेष अधिकारों तथा सुविधाओं की संवैधानिक गारंटी दी गई। बाद में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में इन अनुच्छेदों को संविधान (छब्बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 2 द्वारा निरसित यानी रद्द किया गया।

प्रिवीपर्स के मरण की कहानी

राजाओं द्वारा दबाव डालने और उस समय की परिस्थितियों में देशी रियासतों के शासकों को ‘प्रिवीपर्स’ देने का वायदा संविधान में भी सम्मिलित कर लिया गया था। जिससे राजाओं का ‘प्रिवीपर्स’ भारत सरकार के लिए बंधनकारी दायित्व था। वस्तुतः लोकतांत्रिक देश में ‘प्रिवीपर्स’ की व्यवस्था समानता और न्याय के सिद्घांतों के विरूद्घ थी। देश के खजाने पर व्यर्थ का बोझ बन गये ‘प्रिवीपर्स’ की अलोकतांत्रिक प्रणाली को समाप्त करने का निर्णय इंदिरा गांधी ने लिया। उन्होंने ‘प्रिवीपर्स उन्मूलन संबंधी विधेयक’ सितंबर 1970 में प्रस्तुत किया। लोकसभा में प्रस्तुत किये गये इस विधेयक को लोकसभा ने संविधान संशोधन के लिए आवश्यक दो तिहाई बहुमत से पारित कर दिया। पर राज्यसभा में इसे आवश्यक दो तिहाई बहुमत से एक मत कम मिला। तब इंदिरा गांधी की सरकार ने राष्ट्रपति से अध्यादेश जारी कराकर यह ‘प्रिवीपर्स’ बंद करवा दिए । भारत सरकार और राजाओं की जमात आमने- सामने हो गई थी। राजाओं ने इस अध्यादेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। तब उच्चतम न्यायालय ने 15 दिसंबर 1970 को इस अध्यादेश को अवैध घोषित कर दिया। यह इंदिरा गांधी की सत्ता को दूसरी चुनौती थी। इसके पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर भी कोर्ट और सरकार आमने-सामने हो गए थे।

संघर्ष में इंदिरा गांधी हार मानने वाली नही थीं। उन्होंने लोकसभा भंग करके चुनावों की घोषणा कर दी। पांचवें आम चुनाव 1971 में प्रिवीपर्स’ के मुद्दे पर उन्होंने जनता से राय मांगी। जनता की भावना इस मुद्दे पर इंदिरा गांधी के साथ थी। इंदिरा गांधी भारी बहुमत से ( 350 सीटें ) चुनाव जीतकर सत्ता में लौटीं और फिर संविधान में 26 वां संशोधन करके ‘प्रिवीपर्स’ को हमेशा के लिए बंद कर दिया।

– प्रो. हनुमानाराम ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.
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