क़लम चलती है अब अंधेरों में कि धोखे खाए हैं इसने क्षण भर के उजालों में भटकी भी है ये बहुत चकाचौंध गलियारों में
जान कर असलियत, धोखेबाज उजालों की सो गई थी फिर वो गहरी नींद में हुई है अब बेदार, होशियार जो हो गई क़लम चलती है अब अंधेरों में
चलते हुवे सदा है ये सोचती क्या ज़मीर हो गए गुम उजालों में! हो गए क्या वो भी क्षणिक! क्यों राह नहीं दिखाते अंधेरों में?
ये मान कर कि खो गए ज़िंदा ज़मीर उजालों में तब विकल्प खोजने इनका क़लम चलती है फिर अंधेरों में
– ✍️तूबा हयात