मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नई परीक्षा गाइड लाइन “प्राण जाए पर परीक्षा न जाए”


“प्राण जाए पर परीक्षा न जाए”- मानव संसाधन विकास मंत्रालय।

कल एमएचआरडी ने फाइनल इयर के विद्यार्थियों के लिए सितंबर के अंत तक परीक्षाऐं करवाने का जो गाइडलाईनी फरमान निकाला है वो बेहद अमानवीय, क्रूर और भेदभावपूर्ण है।

मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया ने कहा है कि भारत में कोरोना का पीक नवम्बर में आएगा माने तब तक कोरोना संक्रमण के केसेज़ लगातार बढ़ते ही जाएंगे और इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि नवम्बर के बाद कर्व फ्लैट होने लगेगा। तो फिर सितंबर तक परीक्षा करवाकर एमएचआरडी आख़िरकार करना क्या चाह रही है? ये गाइडलाइन्स नहीं बल्कि ब्लंडर है।

इनका कहना है कि परीक्षाऐं करवाना बेहद ज़रूरी है ताकी स्टूडेंट्स का सही तरीके से मूल्यांकन हो सके और हमारी शिक्षा अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों पर ख़री उतर सके! ये निहायत ही बेतुकी बात है। इससे साफ पता चलता है कि एड्युकेश्नल पॉलिसी बनाने वाले तथाकथित “एक्सपर्टस” को शिक्षा के एसेंस की एकदम समझ नहीं है।

परीक्षा कभी शिक्षा का ज़रूरी अंग नहीं होता, ज़रूरी होता है सीखना और सिखाना। और इंसान हर परिस्थिति में कुछ न कुछ सीख ही रहा होता है। तो जिन परीक्षाओं की बात मंत्रालय अपनी गाइडलाइंस में कर रहा है, क्या उनमें ये सवाल पूछे जाएंगे कि-

“किस तरह आज स्टूडेंट्स और उनके परिवार इस संकट के समय में गुज़ारा कर पा रहे हैं?” या ये-“इस देश में कितने प्रतिशत स्टूडेंट्स के पास इंटरनेट सुविधा और दूसरे ज़रूरी उपकरण उपलब्ध हैं?” या फिर ये कि-“अभी के हालातों में जब विश्व एक त्रासदी से गुजर रहा है ऐसे में कितने स्टूडेंट्स और उनके परिवारजन हैं जो शारीरिक या मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं?” और आखिर में ये ज़रूरी सवाल तो पूछना ही बनता है कि-“कितने घरों से रोज़गार के साधन छिन गए हैं और उन्हें आर्थिक तंगी के साथ साथ मानसिक तनाव का भी समाना करना पड़ रहा है?”

ख़ैर ये सारे सवाल अगर इन एक्सपर्ट्स ने अपने आप से पूछे होते तो एमएचआरडी की गाइडलाईंस कुछ और आती। एक तो ये ऑनलाइन क्लासेज़ और परीक्षाओं का विचार ही अपने आप में एक्सक्लूज्नरी और भेदभावपूर्ण है ऊपर से ऐसे हालातों में परीक्षा!

दुनिया भर के कई देशों ने सारे संसाधन मौजूद होने के बावजूद साल भर के लिए अपने सत्र निरस्त कर दिए हैं ताकि विद्यार्थियों को किसी भी तरह की शारीरिक तकलीफ़ या मानसिक तनाव न हो।

शायद इसीलिए क्योंकि वो समझते हैं कि परीक्षा और फोर्मल एड्युकेशन असमान्य परिस्थितियों में संभव नहीं है और अभी विद्यार्थियों को उससे भी कई ज़्यादा अहम चीजें सीखने की ज़रूरत है। उन्हें सर्वाइवल और इस भयावह दौर में ख़ुद को बचाकर रख़ने के उपाय सीखने की ज्यादा ज़रूरत है।

लेकिन हमारे यहाँ किसी को क्या पड़ी है। यहाँ तो समझ ये है कि तथाकथित “इंटरनेशनल स्टैंडर्ड” को मैच करने के लिए परीक्षाऐं करवाना ज़्यादा ज़रूरी है फिर चाहे इससे स्टूडेंट्स के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर क्या असर पड़े, उन्हें कोई सरोकार नहीं। ये गाइडलाइन्स उन सभी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बावजूद आईं हैं जिनमें कई स्टूडेंट्स और उनके घरवालों ने ओनलाइन शिक्षा का एक्सेस न होने के चलते अपनी जान दे दीं। ख़ैर इन्हें क्या फर्क पड़ता है। प्राण जाए पर परीक्षा न जाए।

Khushbu Sharma
( लेखिका जेएनयू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत है)

 

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