भगत सिंह को आप कितना जानते हैं ?


भगत सिंह का नाम सुनते ही एक युवा, बहादुर और जोशीले क्रांतिवीर की हंसती हुई तस्वीर सामने आ जाती है, जो गोल हटिंग कैप लगाए रहते हैं। चेहरे पर मर्दाना रौबदार मूँछों के साथ हल्की हल्की दाढ़ी उगी होती है जो उनके किशोरावस्था के जोशीले अंदाज को प्रदर्शित करती है। उनकी आँखों में  देश को आजादी दिलाने वाली उम्मीद स्पष्ट देखी जा सकती है जिसकी गवाही उनके चेहरे की मुस्कराहट से जाहिर होती है। भगत सिंह ने उम्र भले ही केवल 23 वर्ष पाई थी लेकिन इतनी कम उम्र में भी वो ऐसा अमर बलिदान कर गए जो लोग सो-सो  साल जिवित रह कर भी नहीं कर पाते।

जीवन परिचय-

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर के बंगा (पाकिस्तान) मे एक सिक्ख परिवार में हुआ। उनके पिता किशन सिंह एंव माता विधावती थी। भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी विचार रखते थे। होश संभालते ही उन्होंने देश को आजाद कराने का पक्का इरादा कर लिया था चाहे इसके लिए उन्हें अपने प्राणों की आहुति ही क्यों ना देनी पडे।

एक दिन भगत सिंह अपने दोस्त के साथ खेल रहे थे तब उनके दोस्त के पिता श्री नंद किशोर मेहता ने उनसे पूछा कि, ‘बेटा! तुम्हारा धर्म क्या है?’

तो भगत सिंह ने उत्तर दिया

‘देशभक्ति। देश की सेवा करना।’

ये उत्तर सुनकर नंद किशोर मेहता बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि वो स्वंय भी एक राष्ट्र भक्त थे। ये उत्तर सुनकर मेहता जी ने भगत सिंह के पिताजी सरदार किशन सिंह जी से कहा,

‘आप बड़े भाग्यशाली हो जो तुम्हारे घर में ऐसे होनहार और विलक्षण बालक ने जन्म लिया है। मेरा इसे आशीर्वाद है कि ये बालक आगे जाकर तुम्हारा नाम रोशन करेगा और देश भक्तों मे इसका नाम अमर होगा।’

इस तरह के अनेक किस्से भगत सिंह के बचपन से जुड़े हुए हैं जो उनकी महानता को प्रदर्शित करते हैं।

भगत सिंह और मार्क्सवाद –

भगत सिंह मार्क्सवादी विचारधारा से काफी प्रभावित थे। वह पूंजीवादी और सामंतवादी व्यवस्था के विरोधी थे। वो सम्पूर्ण देश को एक जैसा चाहते थे अर्थात व्यवस्था में परिवर्तन चाहते थे, इसलिए तत्कालीन राष्ट्रीय कांग्रेस उनसे सहमत नहीं थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कई पूंजीपति वर्ग के लोग शामिल थे इसलिए वो भगत सिंह के विचारों से राजी नहीं थे हालांकि वो खुलकर भगत सिंह का विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि भगत सिंह का कद उस समय देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी के समकक्ष था, इसलिए उन्होंने सिर्फ इस विचारधारा को विदेशी बताते हुए इससे दूरी बनाने की कोशिश की।

भगत सिंह ‘लेनिन’ और ‘सोवियत रूस’ की क्रांति से अत्यधिक प्रभावित थे। वो अन्याय से उत्पन्न परिस्थितियों में बदलाव चाहते थे। उनका कहना था कि हमारा उद्देश्य सिर्फ आजादी पाना नहीं है बल्कि आजाद भारत को भी गरीबी, भ्रष्टाचार, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद आदि से मुक्त रखना है क्योंकि हम इतनी मेहनत से आजादी तो पा लेंगे किन्तु आजादी के बाद फिर से गरीबो का शोषण होगा और गरीब और ज्यादा गरीब होता जाएगा जबकि अमीर और अमीर होता रहेगा।

भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया और ‘इंकलाब जिंदाबाद – साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे को बुलंद करते हुए देश के बहुत सारे युवाओ को आजादी के लिए प्रेरित किया। सुखदेव, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त उनके खास दोस्तों मे से भी थे जो उनके साथ हर क्रान्तिकारी गतिविधियो मे शामिल भी थे। ये सब भी भगत सिंह के विचारों से सहमत थे और साम्राज्यवाद का पुरजोर विरोध करते थे। उस समय एक तरफ तो नरम दल वाले थे जो अहिंसात्मक तरीके से आजादी चाहते थे तो दूसरी तरफ गरम दल वाले थे जो साम- दाम, दंड – भेद किसी भी तरीके से आजादी चाहते थे लेकिन भगत सिंह का तरीका इन दोनों से अलग था वो ना सिर्फ हिंसात्मक तरीके से आजादी चाहते थे बल्कि आजाद भारत को शोषण, अन्याय एंव साम्प्रदायिक ताकतो से मुक्त चाहते थे। वो लेनिन से इतने प्रभावित थे कि अपने आखिरी समय में भी लेनिन को पढ़कर फांसी के लिए रवाना हुए।

 भगत सिंह तत्कालीन मीडिया व्यवस्था से भी संतुष्ट नहीं थे उनके अनुसार, ‘साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने वालों मे अखबार वालों का मुख्य हाथ होता है।’

दूसरी जगह लिखते हैं,’ पत्रकारिता का व्यवसाय किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था जो आज बहुत ही गंदा हो गया है। ये लोग एक दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे – मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भडकाते है ओर परस्पर सिर फुटोव्वल करवाते हैं।’

उस समय मे उनके इस प्रकार के लेखों से उस समय की पैड पत्रकारिता का आभास होता है जो वर्तमान समय में भी देश में खुले तौर पर देखा जा सकता है।

भगत सिंह और धर्म

धर्म के बारे में भगत सिंह बिल्कुल स्पष्ट थे उनका कहना था कि’ इन धर्मों ने हिन्दुस्तान का बेड़ागर्क कर दिया है और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे  भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। यहां तक देखा गया है कि इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है।’

वह छुआ छूत से भी बहुत आहत थे इसलिए कहते थे  ‘कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है, हमारी रसोई में निसंग फिरता है लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

आप अंदाजा लगा सकते हैं कि धार्मिक भेदभाव वर्तमान में इतना चरम पर है तो जब उस ज़माने में कितना अधिक रहा होगा इसलिए ही तो भगत सिंह को  भारतीय युवाओं से यह पूछने पर मजबूर होना पड़ा- ‘दुनिया के नौजवान क्या – क्या नहीं कर रहे हैं और हम भारतवासी, हम क्या कर रहे हैं..?

यहां भारत के लोग पवित्र पशु के नाम पर एक दूसरे का सिर फोड़ते है तो वही दूसरी तरफ बुतों को तोड़ने वाले मुसलमानों मे ताजियें नामक कागज के बुत का कोना फटते ही अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है। हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए हैं। यहां अजब ग़ज़ब सवाल उठते रहते हैं। एक अहम सवाल अछूत समस्या है। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं, झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग अलग ही रहे। “

भगत सिंह के इन विचारों से स्पष्ट है कि वो किस तरह का भारत चाहते थे। वह एक अच्छे वक्ता, लेखक एंव पाठक भी थे। उन्होंने मार्क्स वाद पर गहन अध्ययन किया और पाया कि वहां के लोगों ने नास्तिक होकर भी कितनी बड़ी कामयाबी हासिल की है इसलिए भगत सिंह भी नास्तिक हो गए और ” मैं नास्तिक क्यों हूं?” नाम से दो बड़े बड़े लेख लिखे और अपने पाठकों को अपने नास्तिक होने के कारण विभिन्न तरीकों से समझाये।

” मैं नास्तिक क्यों हूं?-

ये लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो 27 सितंबर 1931 को लाहौर से प्रकाशित” द पीपल” मे प्रकाशित हुआ था। इस लेख के दोनों भागों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है –

“मैं तो उस सर्व शक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इंकार करता हूं। ऐसा क्यों, बाद में देखेंगे। अभी ये समझ लीजिए कि ये मेरा अहंकार नहीं है, क्योंकि मैंने ईश्वर पर विश्वास तो तभी छोड़ दिया था जब मैं प्रसिद्ध नहीं था। मैंने अराजकता वादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु ज्यादातर लेनिन, त्रास्की  व अन्य लोंगो को पढ़ा  जो अपने देश में सफ़लतापूर्वक क्रांति लाए थे और वे सभी नास्तिक थे।

ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर एक राजा होने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों और बलिदानों के लिए पुरुस्कार की कल्पना कर सकता है, किन्तु मैं किस बात की आशा करूं? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा वही पूर्ण विराम होगा, वही अंतिम क्षण होगा।

मैंने ये साफ कर दिया है कि यह मेरा अहंकार नहीं था जो मुझे नास्तिकता की और ले गया। मेरे तर्क का तरीका सन्तोषप्रद होता है या नहीं, इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं।

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूं। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्राथना करने को कहा, जब मैंने उसे मेरे नास्तिक होने की बात बताई तो उसने कहा, “देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे। ‘

मैने कहा,” नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्राथना नहीं करूंगा।

पाठको और दोस्तों, क्या ये अहंकार है? अगर है तो मैं इसे स्वीकर करता हूँ।”

उपर्युक्त लेख से बिल्कुल स्पष्ट है कि भगत सिंह पूर्णतया नास्तिक थे उन्होंने अपने आखिरी समय में भी ईश्वर नामी शक्ति मे विश्वास नहीं दिखाया। ऐसे मे कुछ समय पूर्व दक्षिण भारत के कुछ लोगों द्वारा उन्हें एक विशेष रंग में रंगने का प्रयास किया गया जो समझ से परे है।

राष्ट्र के लिए क्रांति

इस बात मे कोई संदेह नहीं था कि भगत सिंह ने होश संभालते ही अपनी पूरी जिन्दगी देश पर न्योछावर करने का प्रण ले लिया था और उसे पूरा भी किया। जैसे जैसे भगत सिंह बड़े होते गए वैसे वैसे उनके कारनामे भी बड़े होते गए। कुछ ही समय में वो हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे। उन्होंने कई तरह के संघठन स्वंय भी बनाए और जो दूसरे संघठन उनकी विचारधारा से सम्बन्धित थे उन संगठनों से वह स्वयं भी जुड़े। उन्होंने लाला लाजपत राय के कॉलेज से जुड़कर भी स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए काम किया तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) से भी जुड़े जंहा इनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्र शेखर आजाद जैसे बड़े क्रांतिकारियों से हुई। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक होने के कारण भगत सिंह ने एचआरए का नाम बदल कर एचएसआरए (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन) कर दिया था।

काकोरी कांड के बाद जब कई क्रांतिकारी पकड़े गए और आंदोलन की गति धीमी पडने लगी तो भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर एक अंग्रेज अधिकारी ‘सांड़र्स’हत्या कर दी।

उसके बाद अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाते हुए बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर केंद्रीय असेंबली में बम फेंका। बम फेंकने के दो उद्देश्य थे पहला उद्देश्य किसी को मरना नहीं था बल्कि अंग्रेज हुकूमत को डराना था और दूसरा उद्देश्य जेल में रहकर अपने आंदोलन के मुख्य उद्देश्य आम भारतीयों तक पहुंचाना था जिसमें भगत सिंह कामयाब भी रहे। उन्होंने जेल में रहते हुए भी भारतीय क़ैदियों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल की जिसके लिए उन्हें खूब प्रताड़ित भी किया गया।

“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है जोर कितना बाजू ए कातिल मे है “

जैसी पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए हर तरह का दर्द सहन करते और जेल में अपने सभी साथियों का होंसला बढ़ाते रहते।

7 अक्टूबर 1930 को एक विशेष अदालत ने भगत और उनके दो साथी राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई जिसका इन तीनों महापुरुषों ने हंसते हुए स्वागत किया।  तीनों स्वतंत्रता सेनानियों की फांसी रुकवाने के लिए काफी प्रयास भी किए गए मगर एक षडयंत्र के तहत 23 मार्च 1931 को इन सबको फांसी दे दी गई।

‘मेरा रंग दे बसंती चोला…. ” गीत गाते गाते तीनों क्रांतिकारी दोस्त हंसते हुए देश के लिए शहीद हो गए।

मात्र 23 वर्षो का जीवन पाकर भी भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पन्नों में अपना नाम उस अमिट स्याही से दर्ज करा गए जो सदा के लिए अमर हो गया। आज भी करोड़ों भारतीय एंव विदेशी युवा भगत सिंह को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं, जिसकी भविष्य वाणी वह पूर्व में ही इस प्रकार कर गए थे,

“किसी भी इंसान को मारना आसान है

परंतु उसके विचारों को नहीं।

महान साम्राज्य टूट जाते हैं, तबाह हो जाते हैं

जबकि उनके विचार बच जाते हैं।”

वर्तमान समय में भी देश के लिए भगत सिंह की विचारधारा की सख्त जरूरत है जिससे देश, धर्म की राजनीति से मुक्त होकर एक स्वच्छ समाज का निर्माण कर सके लेकिन अफसोस की बात है देश के प्रमुख राजनैतिक दलों द्वारा भगत सिंह की विचारधारा को आज भी अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। भगत सिंह की ये स्पष्ट और स्वच्छ विचारधारा उस समय भी राजनीति से प्रभावित थी इसलिए उनको इतनी कम आयु में शहीद होना पड़ा और आज भी उनकी विचारधारा का प्रयोग इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि उनकी विचारधारा से देश का हित तो हो सकता है लेकिन राजनैतिक हित नहीं इसलिए आज भी उन्हें उतना सम्मान नहीं दिया जा रहा है जिसके वो हक़दार है।

 कुछ पंक्तियां निम्न है जिन्हें भगत सिंह अक्सर गुनगुनाया करते थे –

“उसे ये फिक्र है हर दम,

नया तर्ज़ ए जफा क्या है

हमे यह शौक देखे,

सितम की इन्तहा क्या है। “

कोई दम का मेहमान हूं,

ए-अहले-महफिल,

चराग ए सहर हूँ,

बुझा चाहता हूँ।

– नासिर शाह ( सूफ़ी)

1 thought on “भगत सिंह को आप कितना जानते हैं ?

  1. बहुत ही सटीक जीवन परिचय, सही विचारधारा और देशप्रेम के जज़्बे के साथ शहीद ए आज़म भगतसिंह के जीवन को कलाम से उतारा गया है ।
    बहुत अच्छे नासिर भाई

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