अभी हमें एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले यूँही दर्द और दुआओं को बांटना है !


आभार- दर्द और दुआ को बाँटने का समय

आज अस्पताल से ,पत्नी सहित घर लौट आया हूँ। इस दौरान सभी मित्रों -स्वजनों, परिवारजनों, शुभचिंतकों की दुआओं के लिए तहे-दिल से आभार ज्ञापित हूँ। जानता हूँ कि आभार बहुत छोटा शब्द है, लेकिन चारों और छाई अनिश्चितता की धुंध में सकरात्मक भाव आप तक पहुँच भर सके, यह ज्यादा जरूरी है।

ठीक उस वक्त जब समाचार पत्र, चैनल, मीडिया, परिवेश, हर सूं, बहती आँसुओं की आवारा नदियां, तबाही का जश्न मना रही थी। कुछ दुस्साहसिक चेहरे आम जन की चीख में अपना जय जय कार ढूंढ रहे थे। शरीर के साथ मन पीड़ित था। जीवन बुझने वाली ललक से जल रहा था। मेरा परिवार कोरोना की चपेट में था। किसी का सी. टी. स्कोर 10, किसी काआठ, पाँच..। ऑक्सीजन लेवल तेजी से कम हो रहा था।

प्रेम, परिचय, प्रभाव के सामूहिक प्रयास से मित्तल हॉस्पिटल अजमेर में मुझे और पत्नी को बेड उपलब्ध हुए। तदनुरूप सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक सेवाएं एवम अन्य व्यवस्थाओं के चलते पूरे घर को चैन की सांस आई।

क्या हुआ.होगा.? कैसे हुआ.होगा.? इसका सहज अंदाज लगया जा सकता है। एक लड़ाई थी जो मुझे मेरे परिवार के लिए अपने स्तर पर लड़नी थी। लड़ाई में शरीर से ज्यादा मन की भूमिका थी। आस पास बिखरे विषाद और अमानवीय नायकों की विद्रूप मुस्कान एक ओर जहाँ जुगुप्सा, क्रोध, ग्लानि, के भाव से भर रही थी वहीं दूसरी तरफ सहकर्मी, कवियों, निज मित्रों, परिवारजन का अदम्य साहस हर आती जाती सांस के साथ खड़ा था। इन सबके बीच जीवन की लड़ाई लड़नी थी।

मैं जान चुका था कि सरकारें अपने सरोकारो से बहुत दूर जा खड़ी हुई हैं। अपनी अकर्मण्यता का सारा भार वह आम जन के कंधों पर डाल कर नीरो की तरह बंशी बजा रही है। और उससे भी मजेदार बात की मौत के आँगन में खेलता हुआ समाज भी सरकार के बांसुरी वादन को जीवन की लय मान बैठा है।

देश का बड़ा भू भाग मौत को स्वभाविक नियति मान चुका है। झूठ, अफवाहों और आभासी शौर्य से सूचनाएं भरी पड़ी है। शवो पर मुस्कानों की चादर पड़ी है। आंसुओं से भरे चेहरे दाढ़ी की मोहनी के नीचे दबे हैं। उम्मीद की कोई किरण नहीं है।..बस अपने भीतर की सकरात्मक ऊर्जा संग्रहित करनी थी और उसे सहारे अपनी आगे बढ़ना था।

मुख्य धारा मीडिया से तो पहले ही दूरी थी। कोरोना के बाद तुरंत सोशल मीडिया को बंद किया। तात्कालिक परिणाम -नकार की आवक एकाएक बंद हो गई। असहाय लड़ाइयां, गिडगिडाते परिजन, कबिस्तानों की बदहाली, मातम पर मौन, बेशर्म कुटिलता, कुतर्की प्रसंशा ..से दूरी का स्वार्थी लाभ यह रहा कि मेरा चेहरा आइनों से परहेज करने पर उतर आया।

निजता के बीच स्वयं में सिमट जाने का दुःख केवल समय के गुजर जाने का इंतजार कर रहा था। इसे भरने के लिए पोषित रुचि की शरण मे गया। घर से मंगवा कर अपने आस पास रांघेव राघव की “मुर्दों का टीला, मुस्ताक अहमद युसफी की “खोया पानी, रोम्यां रोलां की” विवेकानंद एक जीवनी”, निर्मल वर्मा की “वे दिन” ,क्नुत हाम्सुन की “भूख” और “पान” , सरीखी किताबें पास रख ली। इन पाँच सात दिनों में जब जैसा अवसर मिला पढ़ ली, सोच ली..।

पढ़ते-पढ़ते थकान ओढ़कर नींद ले ली। किताबों की पूरी चर्चा तो अन्यत्र ही करूंगा, लेकिन महसूस हुआ कि किताबें विषाद से लड़ने का हमेशा से कारगार उपाय रही।

अलबत्ता, पुस्तकों से उपजी संवेदनशीलता, विवेक, रोशनी कभी कभी परेशान करती रही, लेकिन अंधेरे समय मे आंखें भी देती रही।

चूंकि कोविड में एकान्तवास उपचार का ही अंग है। अतः अपने चारों ओर कुछ अच्छे ख्यालों को बुला बुला कर बैठाता रहा। मसलन, कल्पना का अव्यहावरिक संसार का बुनना, करहाते हुए युवा की आंखों में एक लड़की के भर्ती होने पर आई रोशनी को पढ़ना, किसी अकेले बुजुर्ग की आह में उसके परिवार की पुकार सुनना, पी पी ई किट पहने चिकित्सा कर्मियों के आपसी विनोद में खुद को उड़ेलना, कभी सन्नाटों में गूँजता अनजाना डर तो कभी सारी विषमताओं से उपजा विश्वाश का स्वर।

यह आत्मुग्धता अथवा आत्म अनुभव वे उपकरण रहे जो मेरे सम्बल बने। आपसे अपना मन बाँटने की वजह यही है कि इस तरह की जंग में यह सब आपका भी सहारा बन सके।

फिलहाल, अभी हमें एक दूसरे के हाथ मे हाथ डाले यूँही दर्द और दुआओं को बांटना है।

पुनश्चय आभार….

– रास बिहारी गौड़ (कवि एवं लेखक)


 

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