जनमानस विशेष

ये कैसा जातीय दंभ ? दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोका,पत्थर मारे लहूलुहान किया

By khan iqbal

February 11, 2019

ये तस्वीरें अच्छी नहीं है !

न शासन के लिए और न ही समाज के लिए । यह निंदनीय है,दंडनीय है । इसकी पुनरावृत्ति न हो,इस दिशा में प्रयास होने चाहिए।

सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी तमाम घटनाओं को कड़ाई से रोके और आरोपी जिस समुदाय से आते है,वह समुदाय भी गहनता से सोचे कि उससे जुड़े लोग किस तरह की हरकतें कर रहे है,इसका दूरगामी नतीजा क्या होगा ।

हिंसा,खून,बदला, जातीय दम्भ आज के लोकतांत्रिक समाज के मूल्य नहीं हो सकते । संविधान लागू है। इच्छा से या अनिच्छा से सबको स्वीकार तो करना पड़ेगा,और कोई रास्ता नहीं है ।

यह भी तय ही है कि देश तो संविधान से ही चलेगा,जातीय अभिमान से नहीं।

यह खूंरेजी ठीक नहीं है,इससे कभी कुछ भी हासिल नहीं हुआ,न होगा ।

आरोपी पक्ष से मेरा सवाल है कि किसके लिए जेल जा रहे हो ? घोड़ी की रक्षा के लिए या सिर्फ जातीय दम्भ को बचा रहे हो। जो भी कर रहे हो गलत ही कर रहे हो ।

अगर बारातियों के व्यवहार से ,डीजे से,नाचने गाने से कोई दिक्कत है,उनका कोई कृत्य कानून सम्मत नहीं था,तब भी उसके लिए किसी को कानून हाथ मे लेने की जरूरत नहीं है।

कोई भी कानून तोड़ेगा,उसका इलाज भी कानून ही करेगा,किसी को मुंसिफ नहीं होना है ।

यह मनोविकृति है, जो राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त है,कहीं रावलों को तो कहीं लठैत पिछड़ों को दलितों की घुड़चढ़ी से घुटन होती है।वे बिन्दौली पर हमला करते हैं, दूल्हे व बारातियों का खून बहाते हैं ,खुद को शूरवीर समझते है,फिर धरे जाते है, हिरासत में रखे जाते हैं,बरसों कोर्ट के चक्कर लगाते हैं ,जिसकी शादी होती है,वह दूल्हा भूल जाता है,पर जो घोड़ी रोकते हैं,उनको ज़िन्दगी भर यह शादी याद रहती है ।

कुछ लोग इतने सैडिस्ट होते हैं कि उनसे किसी की खुशी नहीं देखी जाती है,ऐसे लोगों को कानूनी उपचार तो मिले ही,उनको मनोचिकित्सक की भी जरूरत है।

मैं इस घटना का सामान्यीकरण करके किसी भी एक समुदाय को आरोपित नहीं कर रहा हूँ,शायद यह सही भी नहीं होगा,क्योंकि हर साल हजारों शादियां हो रही है,सैंकड़ों दलित दूल्हे घोड़ी पर भी सवार हो रहे है।

अधिकांश जगह किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है,लोगों के पास वक़्त ही कहाँ है,पर कुछ जगह अभी भी फालतू लोगों की फौज मौजूद है,अभी उनका लोकतंत्रीकरण नहीं हो पाया है,अभी भी किसी को शासक होने को गुमान है तो कोई लोकशाही में भी राजशाही की गौरवगाथा गा रहा है ।

आंखों की पट्टी खोलो,लोकतंत्र आये बरस हो गये है,वर्णव्यवस्था से नहीं ,अब संविधान से देश चल रहा है,राजशाही के स्वर्णिम अतीत वाले यूटोपिया से बाहर आओ,अब न कोई राजा है और न कोई प्रजा,अब तो राजा ही प्रजा है और प्रजा ही राजा ।

बस हकीकत को स्वीकारने भर की देर है,अन्तस्,मन और मस्तिष्क हर कहीं उजाला हो जायेगा ।

ऐसी घटनाएं हमें बताती है कि अभी तक सामाजिक लोकतंत्र नहीं आ पाया है,लोग संविधान के रास्ते को नहीं पहचान पाये हैं,जो कि दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है ।

इस घटना की दलित पक्ष ने तो खुलकर निंदा की ही है,क्षात्र पुरुषार्थ संगठन ने भी इसकी सार्वजनिक आलोचना की है,यह अच्छी बात है,कानून तो अपना काम करेगा ही,पर सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभे तो यह विभिन्न समुदायों के लोकतंत्रीकरण की दिशा में शुभ ही होगा ।

भंवरमेघवंशी,भीलवाड़ा