पितृसत्ता से लेकर साम्प्रदायिकता को चुनौती देती फ़िल्म गुलाबो सिताबो


शूजीत सरकार (Shoojit sircar) की फ़िल्म गुलाबो-सिताबो अपनी सहज गति में भारतीय समाज पर कुछ गहरे व्यंग्य कर जाती है जिससे दर्शक भाग नहीं सकता।

इस फ़िल्म का जो केंद्र है वह ‘हवेली’ के रूप में निजी संपत्ति है। जिस भारतीय समाज में पितृसत्ता के आधिपत्य में पुरुष संपत्ति का मालिक होता है वहां पर बेगम को हवेली की मालकिन देखते ही दर्शक मनोवैज्ञानिक रूप से मिर्ज़ा के पक्ष में खड़ा हो जाता है।

दर्शक चाहता है कि किसी तरह मिर्ज़ा को हवेली मिल जाये। इससे भारतीय पुरुषवादी मन शांत हो जाएगा लेकिन शूजीत सरकार के लिए शायद इस मन को शांत करना लक्ष्य नहीं रहा। लोग समझ रहे होंगे कि मिर्ज़ा मात्र लालची था, यह मिर्ज़ा के चरित्र का एक ही पक्ष है।

दरअसल तो मिर्ज़ा जो है वह बेगम पर वर्चस्व चाहते थे। इस वर्चस्व के लिए उन्होंने प्यार का नाटक भी रचा। बेगम इस नाटक को जानती थी यानी कि औरत हमेशा प्रेम रूपी वर्चस्व के नाटक को जानती है।

फ़िल्म के अंत में बेगम अपने प्रेमी के पास जाती है तो मुझे मार्खेज का उपन्यास ”एकांत के सौ बरस’ याद आ गया। बेगम की उम्र भी 95 बरस हो जाती है यानी कि एक सदी में एक औरत के रूप में बेगम का संघर्ष अपने सम्पति के अधिकार को प्राप्त करके स्वतंत्र प्रेम को हासिल करना था।

यह संघर्ष हर भारतीय औरत का होता है। मुझे फ़िल्म इस मोड़ से शुरू होती दिखाई दे रही थी।
बेगम पितृसत्ता से जो लड़ाई फ़िल्म में बुढ़ापे में लड़ रही है उसे गुड्डो जवानी में लड़ रही है।

फातिमा महल के लड़ाई एक औरत के लिए अमीर परिवार में भी उतनी ही मुश्किल है जितनी गरीबी में।

मुझे इस फ़िल्म की एक खूबसूरत बात यह भी लगी कि इस साम्प्रदायिकता के दौर में भी यह एक ‘साझी विरासत’ जो लखनऊ की तहज़ीब है उसको बरकरार रखती है। सम्पति की लड़ाई सब लड़ रहे हैं, मज़हब की लड़ाई कोई नहीं लड़ रहा।

ऐसा इस मुल्क के बहुत से कस्बों और गांवों में होता। स्थानीयता को इस गहराई से शूजीत सरकार ने पकड़ा है कि मैं फ़िल्म को शेखावाटी के मंडावा, फतेहपुर जैसे शहरों में घटती हुई देख रहा था। हिंसा जो ज़बरदस्ती भारतीय सिनेमा में घुसेड़ दी जाती है उससे बचकर भी फ़िल्म के सम्प्रेषण को बचाए रखा।

यह जो बाँके है वह बिल्कुल ही परिवार को बचाने के लिए खून पसीना एक करने वाला भारतीय गरीब युवा है। इस वर्ग की कहानी कहने वाले सिनेमा को भूल गए थे लोग। एक चक्की पर आटा पीसने वाले लड़के की कहानी कहना बेगम की कहानी कहने जितना ही साहस का काम है।

पुरातत्व, वकील, भूमाफिया जैसे लोगों के गठबंधन फ़िल्म को आज के दौर में लाकर खड़ा करते हैं। यह फ़िल्म सिनेमा में भारत की खोज है।

संदीप मील

(लेखक कथाकार हैं और राजस्थान में रहते हैं)


 

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