केन विलियमसन की मुस्कुराहट सबको दिखाई दी, मुझको दिखी बेन स्टोक्स की ग्लानि!


वो कह रहे हैं कि देखिये विश्व कप फ़ाइनल हारकर भी केन विलियमसन मुस्कुरा रहे हैं। वो यह नहीं बतलाते कि केन इस पर मुस्कराएं नहीं तो क्या करें?

अक्सर शिकायत की जाती है कि ख़िताबी भिड़ंतों में कड़ा मुक़ाबला नहीं देखा जाता, कि बड़ी प्रतिस्पर्धाओं के फ़ाइनल मैच ऊबाऊ साबित होते। वो चाहते थे कि दोनों टीमों के बीच आख़िरी पल तक कशमकश हो।

ये जो कशमकश है, वो दर्शकों के लिए उम्दा खेल की दावत तो होती है, एक बड़ी ट्रॉफ़ी की प्रासंगिकता का औचित्य-निर्वहन भी इससे होता।

प्रयोजन-भावना की एक तर्कणा बनती। वो कहते, विश्व कप जीतना इतना सरल भला कैसे हो सकता है और जीतता तो वही है जो सर्वश्रेष्ठ होता है। अच्छी बात है। ख़याल अच्छा है।

मुसीबत तब शुरू होती, जब कड़े मुक़ाबले का मतलब नज़दीकी मुक़ाबला हो जाता। खेल आख़िरी बाज़ी तक चला जाता। आप अब यह कहने की तैयारी करते कि दोनों टीमें बराबर की जीत की हक़दार थीं, लेकिन स्कोर कार्ड देख लीजिए, जिसके पास नम्बर्स हैं, विजेता तो वही होगा।

दुनिया में नम्बर्स से ज़्यादा ओवररेटेड कोई दूसरी चीज़ नहीं थी!



तब भी आप स्कोर कार्ड का मुस्तैद मुआयना करते और कहते, क्रिकेट में जीत-हार का फ़ैसला रनों के आधार पर किया जाता है, लेकिन दोनों टीमों ने तो समान रन बनाए हैं!

यूं ये रन समान होने नहीं चाहिए थे, लेकिन क्षेत्ररक्षक कैच लपकने के बाद सीमारेखा छू बैठा और विकेटों की तरफ़ फेंकी गई गेंद बल्ले से लगकर सीमारेखा लांघ गई। भाग्य से मिले इन दस रनों ने ना केवल नज़दीकी मुक़ाबले का विभ्रम रचा, बल्कि, विजय के प्रतिमान भी उलटे।

इस बिंदु पर आकर “कड़े मुक़ाबलाें” के हिमायतियों को संकोच से भर जाना था। इनमें बहुतेरे तो निष्पक्ष दर्शक थे, वे किसी टीम के बजाए खेल का समर्थन करते थे।

किंतु अब उनके प्रिय खेल के सबसे बड़े तमग़े की वैधता प्रश्नांकित हो गई थी। छह सौ गेंदों में जो निर्णय नहीं हुआ, उसे अब बारह गेंदों से मथने की कोशिश की गई। अपने आप में संघर्ष के मानकों का उपहास करने वाली युक्ति। किंतु इस युक्ति के बावजूद दोनों टीमों का स्कोर बराबर ही रहा। अब?

वो कह रहे हैं कि देखिये विश्व कप फ़ाइनल हारकर भी केन विलियमसन मुस्करा रहे हैं। वो यह नहीं बतलाते कि केन इस पर मुस्कराएं नहीं तो क्या करें?

एक तरफ़ मुस्कराहट थी, दूसरी तरफ़ एम्बैरेसमेंट। विजेताओं ने इस क्षण के लिए सालों-साल इंतज़ार किया था, लेकिन जब वो आया तो विजय नहीं विडम्बना की तरह आया।

उत्सव उन्हें मनाना था तो उन्होंने मनाया, लेकिन एक अफ़सोस उनके भीतर पैठ गया, एक धत्त उनकी आत्मा में गूंजी। बहुप्रचारित और बहुप्रतीक्षित जीत मिली किंतु विजेता के गौरव से उन्हें वंचित करके। यह सुपरिचित इंग्लिस्तानी आइरनी थी, टु बी ऑर नॉट टु बी वाली। हैमलेटनुमा।

केन विलियमसन की मुस्कुराहट सबको दिखाई दी, मुझको दिखी बेन स्टोक्स की शर्म। उसने यूनानी योद्धाओं की तरह आख़िर तक क़िला भिड़ाया था, लेकिन उसके जीवन की सबसे बड़ी प्रस्तावित जीत एक ऐसे तर्क पर आश्रित हो रही, जो अभद्रता की हद तक असंगत था। इस अपमान ने बेन स्टोक्स का चेहरा लाल कर दिया। सहसा, चीज़ों के मायने धूमिल हो गए।

आख़िर भूल कहां हुई थी? भूल यहां हुई थी कि अराजकता के जिस महासमुद्र में तार्किक संगति का एक द्वीप उन्होंने निर्मित किया था, वो नियति की एक ही लहर में बह गया।

खेल था तो उसकी वैश्विक स्पर्धा भी होती। स्पर्धा होती तो टीमों का जमघट लगता, मेला भरता। मुक़ाबले शुरू होते। पराजित होने वाली टीमें, जो ज़रूरी नहीं कि कमज़ोर टीमें ही हों, एक-एक कर बाहर हो जातीं। अंत में दो ही टीमें बचतीं। यहां तक आकर पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं रह गया था।

सेहरा बांधा जाना था और किसी एक के सिर ही बांधा जाना था। मुक़ाबला बराबरी पर छूटा, लेकिन सेहरा एक के सिर बंधा। खेल पीछे रह गया, स्पर्धा के तर्क हावी हो गए। अादिम अराजकता की जिस विश्व-स्थिति में यह खेल चल रहा था, उसमें किसी भी क़ीमत पर एक सुसंगति तलाश करने की ज़िद, हताशा और विवशता ने प्रसंगों को मटियामेट कर दिया। समारोह लज्जित हो गया। ट्रॉफ़ी मज़ाक़ बन गई।

और तब, केन विलियमसन मुस्कराया। वो और क्या करता? खेल आख़िर खेल ही था, यह ज़ाहिर हो गया था। ज़िन्दगी किन्हीं मानदंडों के आधार पर एक सीध में नहीं चलती, ये वो समझ गया था और आप चाहे जितनी कोशिश कर लें, नियति के निर्लज्ज उपहास से बच नहीं सकते थे।

इसी इंग्लिस्तान में साल निन्यानवे में नियति के ऐसे ही प्रकोप से हैन्सी क्रोन्ये हक्का-बक्का रह गया था। केन केवल मुस्कराया।

जलसा ख़त्म हुआ, तमाम जलसों की तरह। उसकी भव्यता में कोई कमी न थी, उसका स्वरूप व्यापक था। किंतु जिस प्रयोजन से वह हुआ था, वो एक खोखल साबित हुआ। तो आप यह भी कह सकते हैं कि ये जलसा ही बेमानी था। आप यह भी कह सकते हैं कि जो भी हो मज़ा तो आया, वक़्त तो ख़ूब कटा। किसी बात से आख़िर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

अपनी ज़िन्दगी में झाँककर देखें तो पाएंगे कि हर-एक ने विडम्बना के उस लम्हे को जिया है, जो तारतम्यों को गड़बड़ा देता है और हम बेसाख़्ता ख़ुद से पूछने लगते हैं कि क्या यह सही था, क्या यह ऐसे ही होना था, क्या मैं इसी के योग्य था?

साल दो हज़ार उन्नीस की चौदहवीं जुलाई ने ब्योरेवार बतलाया है कि हमें इस पर क्या करना चाहिए।

हमें केवल मुस्कराना चाहिए, धैर्य और आत्ममंथन का सजीव चित्र बन चुके केन विलियमसन की तरह!

– सुशोभित

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