युवा क़लम

देश के युवाओं को अपना असल शत्रु अब पहचान लेना चाहिए!

By khan iqbal

February 11, 2018

अभी जो कुछ करणी सेना एक फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने के लिए कर रही है, वह मात्र एक घटना नहीं है। बल्कि वह भारत में बढ़ रहे जातिवाद, सांप्रदायिकता और राजनीतिक फायदा लेने की चालबाजियों का एक नमूना है।

आज की राजनीति विभिन्न जातियों को भड़काकर आपस में द्वेष पैदा करवा कर पीछे से सबको पुचकार कर सत्ता प्राप्त करने की है।

इसलिए बजाय इसके कि हम लोग इस समय राजपूतों को बुरा भला कहें, या इतिहास में हुई कुछ राजपूतों की गलतियों का जिक्र करके राजपूतों को लज्जित करें, हमें इस पूरी समस्या को समग्रता से देखना चाहिए।

भारत की राजनैतिक और अर्थव्यवस्था की विफलता जैसी सभी बातों को जब तक हम नहीं देखेंगे तब तक हम जाट आंदोलन, राजपूतों का गुस्सा, पटेलों की जाति आरक्षण की मांग, दलितों में बढ़ता असंतोष, ओबीसी आंदोलन, मुसलमानों में बढ़ती असुरक्षा इन सब को ठीक से समझ नहीं पाएंगे।

ऐसा नहीं है कि भारत में कोई भी समुदाय पूरा का पूरा बहुत बुरा है, या कोई समुदाय पूरा का पूरा बहुत अच्छा है। सभी जातियों, सभी संप्रदायों में अच्छे और बुरे लोग मौजूद हैं।

इसलिए इस समय जो कुछ हो रहा है उसके लिए उस जाति की नकारात्मक ऐतिहासिक घटनाओं को ढूंढ कर लाना एक गलत विश्लेषण होगा, जिससे हालत और बिगड़ेगी।

हमें इस बढ़ते जातिवाद और सांप्रदायिकता को भारत के ऐतिहासिक राजनैतिक विकास के क्रम में देखना पड़ेगा।

भारत में जब आजादी आई उसके बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया गया। जिसके तहत यह सोचा गया कि एक तरफ तो हम बड़े उद्योगपतियों को काम करने देंगे और दूसरी तरफ हम गांव में कुटीर उद्योग लघु उद्योग को बढ़ावा देंगे।

तो नेहरू के समय में ही एक तरफ बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगा दी गईं, और दूसरी तरफ सरकार खादी और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कुछ छूट देती रही।

लेकिन हम सब जानते हैं कि अगर कोई चीज गांव में बनेगी, उसे गांव के लोग बनाएंगे, छोटे स्तर पर कम उत्पादन होगा, शुद्ध कच्चा माल लगेगा, मजदूर की मजदूरी देनी पड़ेगी, तो उस उत्पाद की एक न्यायोचित कीमत हमें देनी पड़ेगी। लेकिन अगर वही चीज कोई बड़ा पूंजीपति बनाएगा, तो वह मशीन से बनाएगा, कच्चा माल भी वो सरकार की मदद से किसानों, जंगलों, पहाड़ों से सस्ते दाम में हड़प लेगा और उसका सामान गांव के बने सामान से सस्ता होगा।

इसके अलावा बड़े उद्योग वाला पूंजीपति तो टीवी, रेडियो, अखबार के मार्फत अपना विज्ञापन करके अपना माल ज्यादा बेच लेगा। और गाँव का सामान बिकेगा नहीं। गाँव का उद्योग बंद हो जाएगा। इस तरह अगर आप किसी एक माल के उत्पादन में गांव और बड़े उद्योगपति के बीच कंपटीशन करवाएंगे तो उसमें बड़ा उद्योगपति जीत जाएगा।

भारत में यही गलती करी गई। भारत में ऐसे हजारों काम धंधे गांव-गांव में चलाए जा सकते थे जिनसे भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होती। देश के करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता। गांव के नौजवान गांव में ही रहते। लेकिन वैसा नहीं किया गया। गांव में कपड़ा बन सकता है, कागज बन सकता है, जूते चप्पल साबुन स्याही पेन पेंसिल ब्रेड बिस्किट इन सारी चीजों को बड़े उद्योगों द्वारा बनाया जाना प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए था।

उससे इस देश के गांव-गांव में सूती रेशमी ऊनी कपड़े बनते, गांव गांव में रोजगार पैदा होते लेकिन यह सारी चीजें बड़े-बड़े उद्योगपतियों को उत्पादन करने की छूट दे दी गई।

उसके कारण गांव के सारे उद्योग नष्ट हुए गांव में बेरोजगारी फैल गई और नौजवान शहरों में नौकरी के लिए निर्भर हो गए।

धीरे-धीरे पूंजीपतियों ने अपने कारखानों में मशीनें लगाईं और रोजगार कम करते गए। तो भारत की राजनीति भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी हो गई कि जिसमें ना गांव में रोजगार बचा ना ही शहरों में रोजगार बचा।

ऐसी हालत में भारत की राजनैतिक पार्टियों ने नौजवानों के मन में यह डालना शुरू किया कि तुम्हारी बेरोजगारी का कारण आरक्षण है। और अगर तुम आरक्षण की मांग करोगे तो तुम्हें रोजगार मिल जाएगा। जबकि सच्चाई यह थी कि पढ़े-लिखे नौजवानों के मात्र 2% लोगों को ही रोजगार मिल सकता है जिसमें से कुछ आरक्षण है।

लेकिन सारे नौजवानों को यह भड़का दिया गया कि अगर तुम आरक्षण की मांग करोगे तो तुम्हें रोजगार मिल जाएगा। और तुम्हारे रोजगार तो आरक्षित वर्ग के लोग खा रहे हैं।

अब राजनीति जो रोजगार नहीं दे सकती थी वह पूरी राजनीति धीरे-धीरे बड़े पूंजीपतियों के जेब में समाती चली गई। पूंजीपति और बड़े बनते गए। वह चुनावों में पैसा देने लगे।

बड़े पूंजीपतियों को किसानों आदिवासियों की जमीनें पहाड़ जंगल सरकारें छीन छीन कर देनें लगी। मानवाधिकारों का हनन होने लगा। और भारत की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर आ गई जहां वह जनता की राजनीति नहीं बल्कि बड़े पूंजीपतियों, अमीरों के दलालों, अमीरों के लिए काम करने वाली पुलिस, अमीरों के लिए काम करने वाले अर्धसैनिक बल, गरीबों के मानवाधिकारों का हनन में लग गये।

यह जो दौर है इसको अगर हम ठीक से नहीं समझेंगे और आपस में जातियों के लोग एक दूसरे को गाली देंगे नीचा दिखाएंगे एक दूसरे की कमियां ढूंढेगे। तो देश की जनता को अलग-अलग जातियों में बाँट कर चुनाव जीतने वाली पार्टियों का फायदा होगा।

इसलिए हमें इस समय सभी जातियों के नौजवानों से बात करनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि दरअसल उनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार यह राजनीति है। यह अर्थव्यवस्था है। और जब तक देश के लोग इसको बदलने के लिए तैयार नहीं होंगे तब तक कांग्रेस भाजपा समाजवादी मायावती सभी पार्टियां यही खेल खेलती रहेंगी।

इन सभी पार्टियों का आर्थिक ढांचा वही है यहां तक कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अभी इसी आर्थिक मॉडल को चलाती हैं। उनकी भी आर्थिक सोच अलग नहीं है। इसलिए यह काम भारत के विचारकों सामाजिक कार्यकर्ताओं राजनीतिक कार्यकर्ताओं का है कि वह देश की जनता को बताएं कि यह अर्थव्यवस्था आर्थिक मॉडल जब तक नहीं बदला जाएगा। तब तक इस जातिवाद की राजनीति और इस सामाजिक उथल-पुथल से छुटकारा नहीं पाया जा सकता।

ठाकुर आशीष राजपूत